Struggler (Hindi Novel) [2]

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बिहारी ने सुबह सात बजे फोन किया तो रश्मि की माँ ने बताया वह अभी सो रही है। साढ़े आठ बजे किया तो पता चला कि मोहतरमा अभी बाथरूम में नहा रही है। बिहारी ने ठीक सवा नौ बजे फिर से फोन करने का वादा किया। सवा नौ बजे फोन करने पर पता चला कि वह कहीं बाहर गई है।  “कहाँ गई है ?” पूछने पर उसकी माँ ने कुछ न बता पाने की असमर्थता जताईI बिहारी को बहुत बुरा लगा कि समय तय करने के बाद भी रश्मि ने उसके फोन का इंतजार नहीं किया और चली गई।  आज रविवार का दिन है, छुट्टी का दिन वह रश्मि के साथ बिताना चाहता था लेकिन…..। हैरी प्राश का हाल – चाल जानने के लिए बिहारी ने फोन किया तो उसकी बहन ने बताया कि वे अभी – अभी घर से निकल गये। बिहारी का मूड ऑफ हो गया। उसने बाजार से एक बीयर की बोतल खरीदी और सारा दिन नशे की खुमारी में बिताने का निश्चय किया। शिखर, स्वामी, विशाल – इन तीन रूम पार्टनरों के अलावा उसे रश्मि  से लगाव था,  लेकिन आज उसे पूरा दिन अकेले ही कमरे में बिताना पड़ेगा क्योंकि उसके तीनों रूम पार्टनर किसी सिरियल की शुटिंग में व्यस्त थे। पिछले तीन सप्ताह से वह बेकार था।
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प्रोडक्शन मैनेजर  देशपांडे को ऑफिस क्लर्क ने बताया कि स्पॉट बॉय लल्ली पिछले दो दिनों से बहुत बीमार है। देशपांडे ने लल्ली के बीमारी की जानकारी निर्देशक सतीश शर्मा को दी।
” एक काम करो देशपांडे,  मैं तुम्हें दो सौ रूपये देता हूँ। लल्ली को किसी डॉक्टर के पास ले जाकर दिखा दो और बाकी पैसे के फ्रूट खरीदकर दे देना।” सतीश शर्मा ने दो सौ रूपये देशपांडे को थमा दिये I
वर्सोवा जुहू में सागर के किनारे सलीम भाई के घोड़े के अस्तबल से सटे छोटे से अंधेरे कमरे में जब देशपांडे ने झांककर देखा तो लल्ली अपने घुटनों को पेट में सिकोड़े सोये पड़ा था। कमरे के भीतर सीलन एवं घोड़े की लीद की मिली जुली दुर्गंध थी। देशपांडे ने उसे जगाया तो वह उठकर बैठ गया I लल्ली ने बताया कि उसे मलेरिया है और डॉक्टर की दवाई से आराम है। देशपांडे ने सतीश शर्मा के दो सौ रूपये और अपने दौ सौ रूपये देकर कल फिर आने का वादा करके के चला गया। घोड़े के अस्तबल से सटी कोठरी से लल्ली चारपाई पर लेट गया। घर से भागकर हीरो बनने आया लालता प्रसाद आज स्पॉट बॉय लल्ली बन गया।
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मखमली लिहाफ से ढ़ंकी डलनप के मुलायम गद्दे में धंसी रश्मि गहरे नींद की आलिंगन में  बड़ी लापरवाही के साथ पड़ी हुई है। रेशमी चद्दर पैरों के पास पड़ा हुआ है। नाइटी में कई सिलवटें पड़ी हुई है। सोते समय उसने अपने काले लंबे बालों को छोड़ दिया था जो इस वक्त उसके कमर, वक्ष, गाल और सिरहाने छितराये हुये हैं । रश्मि भी स्ट्रगलर है। उसने भी हेमा,  रेखा, और मीना कुमारी की तरह एक अच्छी अभिनेत्री बनने का सपना देखा हुआ है। बी .ए. की पढ़ाई एस.एन.डी.टी.कॉलेज से पूरी कर चुकी है और नौकरी करने की न कोई इच्छा है , और न मजबूरी I पिता अरविंद देशपांडे एक प्राइवेट कंपनी में पर्सनल मैनेजर है और बड़ा भाई बोरीवली स्टेशन के पास ही एक गैराज चलाता है। छोटा भाई कंप्यूटर डिप्लोमा होल्डर है जो एक साफ्टवेयर कंपनी में नौकरी के साथ-साथ इंजिनियरींग की पढ़ाई भी कर रहा है। घर में लक्ष्मी की कृपा है। माँ ने रश्मि की भावना का आदर करते हुये उसे फिल्म में काम करने की छूट दे दी है। बंबई फिल्म नगरी के  स्ट्रगलरों की भीड़ में एक और स्ट्रगलर “रश्मि देशपांडे” भी भर्ती हो गई। रश्मि  के पास न ही कोई थियेटर का अनुभव है और न ही उसे कभी अपना अभिनय दिखाने का मौका मिला। लेकिन उसके मन में पक्का आत्मविश्वास  है कि यदि उसे एक बार मौका मिला तो वह अपने आपको एक अच्छी अभिनेत्री साबित करके दिखा सकती है। इसी ठोस चट्टान की तरह अपने आत्मविश्वास के बल पर उसने आठ हजार रूपये खर्च करके मॉडल फोटो खिंचवाये थे जिसमें उसका मार्गदर्शन असिस्टैन्ट डायेक्टर बिहारी ने किया था। सौ फोटो की कॉपी, मार्गदर्शक बिहारी और टेलीफोन फिल्म डायरेक्टरी में नामचीन निर्माता – निर्देशकों के फोन के बल पर रश्मि का स्ट्रगल जारी था।
              सुबह देर तक सोने वाले मीठे-मीठे सपने देखने के आदी होते हैं। शायद रश्मि भी कोई सपना देख रही थी। सेन्टार होटल जुहू के विशाल मंच पर रश्मि पच्चीस-तीस सुन्दरियों के बीच खड़ी है।
सामने हजारों दर्शकों की भीड़ है। फोटोग्राफरों के कैमरे दनादन चमक रहे हैं। हॉल में लगे टेलीविजन सेट पर पूरे हॉल का चित्र आ-जा रहा है। फेमिना और कोकाकोला द्वारा संयुक्त रूप से आयोजित   “मिस इंडिया ब्यूटी कॉन्टेस्ट”  का  सीधा प्रसारण दूरदर्शन के साथ-साथ  अन्य चैनलों पर हो रहा है। हॉल के टेलीविजन सेट पर जब रश्मि का क्लोज अप चेहरा आता तो रश्मि के शरीर में एक रोमांच की लहर उमड़ने लगती । उसका रोया- रोया पुलकित हो उठता।  “मिस इंडिया” के नाम की घोषणा होने को है इसलिए दर्शकों और सुंदरियों की उत्तेजना अपने चरम पर है। भीड़ में जगह – जगह खड़े और बैठे युवकों की टोली अपनी-अपनी पसंद की सुंदरियों का नाम लेकर चिल्ला रहे हैं। इस तरह से वे अपनी पसंद बताकर आयोजकों को ये बताना चाह रहे थे कि किस सुंदरी को  ” मिस इंडिया”  घोषित किया जाये। हर ग्रुप अलग-अलग सुंदरियों  के नाम पर शोर मचा रहा था । रश्मि की नज़रे हॉल में  चारों तरफ घूम रही थी । वह देखना चाहती थी कि उसके नाम की डिमांड करने वाले लोग कितने हैं? कभी यहाँ,  कभी वहाँ, कभी आगे, कभी पीछे चारों तरफ नज़रे दौड़ाने के बाद भी उसे लगा कि जैसे एक भी दर्शक उसके नाम का शोर नहीं मचा रहा है। रश्मि ने अपने दोनों कानों को चौकन्ना कर लिया कि शायद वह भीड़ में अपने चहेतों को नहीं देख पा  रही हो लेकिन उनकी शाउटिंग तो सुन ही सकती है। रश्मि का कलेजा धक से बैठ गया क्योंकि उसे अपने नाम की कोई पुकार सुनाई नहीं दी। अपने को अपमानित और  उपेक्षित महसूस करती रश्मि धीरे – धीरे सुंदरियों के बीच न खड़े होकर मंच के एक ओर सरकने लगी कि  उसका   ” मिस इंडिया” बनना तो दूर वह  रनर अप  भी नहीं  बन पायेगी। रश्मि की आँखे भर आयी उसने अपने आप को पर्दे के पीछे छिपा  लिया। आँखों में तैर आये आँसुओं के उस पार की भीड़  झिलमिलाने लगी और एक चेहरा उसे साफ नज़र आने लगा। वह चेहरा था बिहारी का। बिहारी शांत स्वभाव से  खड़ा है और  “ऑल द बेस्ट” कहते हुये  अपना अंगूठा दिखा रहा है। रश्मि को अब भी विश्वास नहीं है। उसे बिहारी बहुत झूठा लग रहा था जो उसका मन रखने के लिए अपनी शुभकामना दर्शा रहा था। उसने अपनी आँखे बंद कर ली  आँसूओं के कई मोती गिर पड़े।
जैसे ही माईक पर  ” मिस इंडिया” के नाम की घोषणा का ऐलान किया गया, चारों तरफ चुप्पी छा गई। एकदम सन्नाटा…..जैसे हॉल में कोई भीड़ नहीं बल्कि मुर्दों का ढ़ेर लगा हो। अपनी हार महसूस करते हुये रश्मि सिसक पड़ी। उसकी दबी हुई सिसकी हॉल में गूंज उठी। हर कोई उसकी सिसकी को  साफ-साफ सुन रहा था और उसके मनोभावों को समझ रहा था । आयोजक ने नाम की घोषणा के लिए मुँह खोला,  ” द आवार्ड  ऑफ मिस इंडिया ब्यूटी कॉन्टेस्ट इज मिस रश्मि देशपांडे I”  पूरा हॉल तालियों से गूंज उठा। चारों तरफ उसके नाम की गूंज होने लगी। मुख्य अतिथि ने जब उसके सिर पर सोने का ताज रखा था तो हॉल के सारे टीवी सेटो पर उसका ही चेहरा था। रश्मि फफक कर रो पड़ी। हृदय में रुका सैलाब आँखों में उमड़ पड़ा। एक बारगी उसे लगा कि वह पागल हो जायेगी। अपने सिर पर रखे ताज को वह हौले से छूने का प्रयास कर रही थी कि  “ट्रिन ट्रिन”  टेलीफोन की घंटी ने सिर खाना शुरू कर दिया। रश्मि की आँखे खुल गई। सपना टूट गया। ताज छूने से वह वंचित रह गई। सामने घड़ी पर नज़र गई तो सुबह के सात बजकर बीस मिनट हो रहे थे।   “सुबह का देखा गया सपना सच होता है।”
” हैलो”  कितनी मासूम, कितनी कोमल आवाज थी। एक बार नहीं कोई बार – बार सुनना चाहेगा।
” रश्मि, बिहारी बोल रहा हूँ।”
” ओऽऽऽह बिहारी जी,  आपने मेरा करोड़ों का नुकसान कर दिया।”
” क्या हुआ?”  रिसिवर संभालते हुये बिहारी  घबड़ाकर बोला , ” मैंने क्या नुकसान कर दिया ?”
” मुझे मिस इंडिया का एवार्ड मिलने वाला था कि तुमने फोन की घंटी बजा दी।”
” क्या फेमिना वाले तुम्हारे घर आये हैं?  चुपके – चुपके एवार्ड दे रहे हैं क्या?”
” ओहो”
” एक काम करो  फोन रख दो और पहले मिस इंडिया का एवार्ड ले लो।”
” बिहारी जी,  मैं सपना देख रही थी कि   ” मिस इंडिया” चुन ली गई हूँ।”
” मुबारक हो , मुबारक हो।” बिहारी ने कटाक्ष किया,  ” अभी जुम्मा – जुम्मा दस दिन पहले तय किया कि हीरोइन बनना है और आपने मिस इंडिया का ताज भी पहन लिया।
” सुबह का सपना सच होता है न ”  रश्मि  ने एक मासूम बच्ची की तरह पूछा ।
” होता हो या न होता हो, लेकिन मेरी शुभकामना है कि आपके  सपने सच हो।”

” थैंक्यू बिहारी जी I कितना समानता है आप में और सपने वाले बिहारी जी में।”  रश्मि बिहारी का एहसान जताने लगी,  ” सपने में भी आपने केवल आपने ही मुझे  ‘ऑल द बेस्ट’ कहा और अभी भी अपनी शुभकामना दे रहे हो।”

” सब तकदीर पर निर्भर होता है रश्मिजी इंसान के चाहने से क्या होता है। ”  बिहारी बिल्कुल दार्शनिक लहजे में कह रहा था,  “हम कुछ नहीं कर सकते लेकिन कम से कम अपनी शुभकामना तो दे ही सकते हैं।”
” थैंक्यू । और फोन कैसे किया?”
” मैंने तुम्हारी फोटो ‘टाइम्स’ में पहुँचा दी है। अगले मंगल को छ्प रही है। खरीदना मत भूलना ।”  बिहारी ने जैसे बहुत बड़ा काम किया हो।
” थैंक्यू बिहारी जी, थैंक्यू । तो हम लोग कब मिलेंगे?”
” मैं फोन करूंगा। अभी मुझे एक सिटिंग में जाना है। चलूँ।”  और वहाँ से  फिर मिलने के वादे के साथ फोन कट गया।
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समय की गति को कोई नहीं जानता। समय सब का गुरु है। समय कभी का कोई इंतजार नहीं  करता बल्कि लोग समय का इंतजार करते हैं। समय सदैव गतिमान रहता है। समझदार व्यक्ति वह है जो सही समय पर उचित काम करे। जिसने समय का सम्मान किया, वह समाज के द्वारा सम्मानित होता है। लेकिन जो समय के मोल को नहीं पहचानता,  धीरे – धीरे उसका अस्तित्व मिट्टी में मिल जाता है।
बांद्रा की ओर दौड़ती चार सौ बाईस नंबर की बस में एकदम पिछली सीट पर बैठा हुआ शिखर समय की महिमा और महत्त्व के बारे में सोच रहा है। दो से दस की शिफ्ट में अपनी शुटींग के इंतजार में वह दिन भर बैठा रहा। आज के दिन सिनियर टी.वी. कलाकारों की भरमार थी इसलिए उन सबकी शुटींग का काम पहले निपटाया जा रहा था। निर्देशक अशोक सागर ने शिखर के हाथ में तीन-तीन पेज वाली सीन की स्क्रिप्ट थमाकर डायलाग तैयारी करने के लिए दोपहर से ही कह दिया था। दिन भर अपनी शुटींग का इंतजार करते – करते वह बोर हो गया था। तब कहीं जाकर रात साढ़े नौ बजे  उसके दो सीन फटाफट शूट कर लिये गये। निर्देशक की जल्दबाजी के कारण शिखर खुलकर अभिनय नहीं कर पाया। उसके हर शॉट मुश्किल से दो टेक में ओके हो गये थे। पौने ग्यारह के करीब उसने साकीनाका से बस पकड़ी थी। एक बार उसके मन में हुआ खाना होटल से खाकर चले। लेकिन मन में यह बात भी आयी कि बिहारी और  विशाल ने दाल चावल बनाकर रखे होंगे ….. तो फालतू में पैसे क्यों खर्च करें Iकन्वेयस के सौ रूपये जेब में तह करके रखे हुये थे। अपने आप में खोया शिखर उन दिनों के बारे में सोच रहा था कि महिने-दो महिने दौड़ने के बाद कहीं एक दिन या एक-दो एपिसोड का काम मिलता था…. और इस तरह से उसने पच्चीसों  धारावाहिक में आयाराम गयाराम के रोल किये थे। शिखर को दुख इस बात का था कि पिछले साढ़े तीन – चार सालों में एक भी फिल्म में एक्टिंग करने का मौका नहीं मिला। सिरियल में काम किये  लेकिन अब तक कोई पहचान नहीं बनी थी । हां इतना संतोष मन में जरूर था कि  “तुम सब एक हो” धारावाहिक में उसे दस – बारह एपिसोड की कक्टिन्यूटी में एक मुस्लिम कैरेक्टर  ” अली हसन”  का दमदार रोल मिला था जो दंगे में नवीन निश्चल की जान बचाकर अपने घर में पनाह देता है। समय की करवट को महसूस करते हुये शिखर मन ही मन खुश हो रहा था कि नवीन निश्चल के साथ काम करने के कारण उसे पहचान मिलेगी। वह बांद्रा रेलवे कालोनी की तरफ बढ़ गया। वह आज इतना खुश था कि उसे बरबस पूनम की याद आ गई। पूनम का चाँद सा चेहरा उसकी आँखों के सामने घूम गया। उसने अपनी पर्स निकाली और चारों तरफ एक नज़र दौड़ाकर चुपके से पूनम की तस्वीर को चूम लिया ।एक चुम्मा से मन नहीं भरा तो चार छ: चुम्मे और तस्वीर पर जड़ दिये। अपने इस किला फतह के गौरव की खबर पूनम को देने के लिए रात में उसने चिठ्ठी लिखने का मन बनाया। कालोनी गेट पर पहुँचा तो देखा कि अब्दुल मियाँ अपनी बीवी के साथ दुकान की साफ – सफाई में लगे थे शिखर दुकान पर पहुँचा। अब्दुल मियाँ फ्रिज साफ करने में व्यस्त थे।
” भाईजान, अभी कहाँ से आ रहे हैं ? फातिमा की नज़र शिखर पर पड़ते ही वह बोल उठी।
“हां, आज शुटिंग थी। अभी रात को पैकअप हुआ” शिखर के इतना कहने पर अब्दुल मियाँ पीछे की ओर देखने लगा। अपनी आदत से मजबूर होने के कारण  “और शिखर मियाँ, सब खैरियत ?” का प्रश्न दाग दिया।
शिखर ने एक अंतर्देशीय मांगी। फातिमा ने थमा दी । अब्दुल हाथ पोछकर डायरी पलटने लगा,  शिखर मियाँ, आपका एक फोन आया था- अपना नाम कोई पागल बता रहा था….हां ये रहा…. निरंजन पागल …. उसने आपको कहा कि रात बारह के पहले फोन कर ले…. इस नंबर पर I”
” लाओ अभी कर लेते है”  शिखर ने फोन लगाया। निरंजन पागल फोन पर ही था। पाँच मिनट तक दोनों में इधर उधर की बातें हुई। शिखर यह बताना नहीं भूला कि दूरदर्शन पर टेलीकास्ट हो रहे सिरियल  ” तुम सब एक हो” में वह अली हसन की भूमिका कर रहा है।”   बातें खत्म होने के बाद उसने सौ रूपये का नोट अब्दुल मियाँ की ओर बढ़ाया,  ” अंतर्देशीय, फोन और टेलीफोन के पचास रूपये बिल काट लो, बाकी दो महिने का बिल जल्दी दे दूंगा।”
” कोई बात नहीं, कोई बात नहीं”  कहते हुये वह छुट्टे  पैसे गिनने लगा। फातिमा ने बताया कि बिहारी और विशाल अपने कुछ दोस्तों के साथ गेइटी में पिक्चर देखने गये हैं। शिखर समझ गया कि खाना नहीं बना होगा। उसने एक ब्रेड का पैकेट,  दो रूपये का आचार और पाव किलो दूध खरीद लिया।
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कभी-कभी शिखर मन ही मन सोचता कि यदि वह एक सफल एक्टर न बन सका तो फिलॉसफर बन जायेगा। पिछले तीन वषों से वह जूते घिस रहा है। आर्थिक असुरक्षा एवं कुछ न कर पाने का भय उसे बार – बार  सोचने के लिए विवश करता कि जीवन क्या है? अपने आप में अधूरा और एक डरावना प्रश्न….
जीवन क्या है? प्रत्येक आदमी अपनी जिंदगी को ढोता है और अपने अनुभव के आधार पर सोचता है…. जीवन क्या है? किसी ने जीवन जीने को जंग जीतना कहा है । किसी ने जीवन को  संगीत की उपमा दी है l किसी ने जीवन को महज पागलपन कहा है तो किसी ने जीवन को जीने की कला कह कर उसे गौरवान्वित किया है। अपनी – अपनी पहचान…. जीवन क्या है?
मात्र जीवन यापन की जुगाड़ में छोटी-मोटी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अपने आपको होम कर देने के बहुतेरे मिल जायेंगे लेकिन उन लोगों की संख्या बहुत कम है जो जानते है कि जीवन अमूल्य है। दुनिया के किसी भी बाजार में इसका मोल भाव नहीं किया जा सकता है । …. और इस जीवन का अंतिम सत्य है,- मृत्यु!!! आम आदमी के लिये एक महान  आश्चर्य का विषय I यदि उत्पति और विनाश की मध्यावस्था ही जीवन है तो जीवन की सार्थकता किसमें है?
मई जून की  तपती दोपहरिया पसीने से तरबतर कर दिया करती है। वातावरण में एक असहनीय उमस व्याप्त हो जाती है। ऐसे में केवल यही इच्छा होती है कि किसी वातानुकूलित कमरे में बैठकर खूब पानीदार नमकीन छाछ पीये। पर स्ट्रगलर शिखर की तकदीर में वातानुकूलित कमरे और छाछ का सुख कहाँ ? ये रोज – रोज के स्ट्रगल को लेकर उसके मन में बड़ी खीझ उठती थी। एक निर्माता के कार्यालय से दूसरे कार्यालय, एक स्टुडियो में एक निर्देशक से मिलकर दूसरे स्टुडियो में, वह भी एक दिन या कभी कभार नहीं बल्कि रोज की भाग दौड़ थी। हरे रामा  हरे कृष्णा की सड़कों से होता हुआ । जुहू चर्च बस डिपो तक पहुँचते – पहुँचते शिखर पसीने से भीग उठा। “बंबई की गर्मी तो बदन से बदबुदार पसीना बहा देती है और अपने इलाहाबाद की गर्मी में चाहे जितना पसीना बहे उसमें दुर्गंध नहीं आती। ऐसा शायद बंबई के सागर इलाहाबाद के गंगाजल के कारण हो I
“शिखर प्यास से बेहाल था। उसमें इतना हिम्मत नहीं थी कि होटल सी प्रिंसेस तक पैदल जाये और सामने वाली बिल्डिंग में निर्देशक अशोक सागर से मिले। वैसे वहाँ जाकर उसे कोई फायदा नज़र नहीं आ रहा था। इसके पहले पिछले तीन महिनों में उनसे नौ बार मिल चुका था। उनकी एक सिरियल. ” हम सब एक है”  दूरदर्शन पर टेलीकास्ट हो रहा है। हर मुलाकात में दस दिन बाद मिलने को कहते। हर मुलाकात में इतनी आत्मीयता दिखाते जैसे दस दिन बाद  वे “जंजीर” में अमिताभ बच्चन जैसी धासू भूमिका दे देंगे। इस विश्वास और आशा के बीच झूलते – झूलते पहाड़ की तरह जैसे-तैसे दस दिन बिताया जाता। और दस दिन बाद जब मुलाकात होती तो फिर आगे दस के लिये बात टल जाती । उस समय शिखर पर मानों हजारो मूसले एक के बाद एक घनाघन पड़  रही है। इतनी जलालत होने के बाद भी शिखर की तरह सैकड़ों हजारों स्ट्रगलर उनके पास प्रत्येक दस दिन बाद सलाम मारने जाया करते थे क्योंकि उनका सिरियल दूरदर्शन पर प्रसारित हो रहा था। जब  शुटिंग हो  रही है तो कलाकारों की जरूरत पडे़गी। तब अशोक सागर मंत्र मारकर कलाकार पैदा तो नहीं करेंगे। इन्हीं स्ट्रगलरों में से या जो प्रतिष्ठित कलाकार है उन्हीं लोगों को ही कास्ट करेंगे। कभी अपने नाम का पत्ता भी खुल जायेगा। अपने नाम  का पत्ता खुलने की उम्मीद में शिखर   सी प्रींसेस होटल की सामने वाली बिल्डिंग में जाना चाहता था लेकिन गर्मी की तपिश ने उसे अंदर से बाहर तक बेहाल कर रखा था। मिश्रा डेरी फार्म के कोने में रखी  टेबल पर सुस्ताने के लिए शिखर बैठ गया। वह सड़क पर आने जाने वाले को देख रहा था । खिलखिलाती लड़कियों को देखता तो वहीं बैठे – बैठ उसकी निगाह बहुत दूर तक पीछा करती थी। कई स्ट्रगलर आ जा रहे थे। वह उनकी नज़र बचाकर छिपने का प्रयास करता था ताकि कोई पास आकर उसकी शांति में खलल न डाले Iसामने बस डिपो कार्यालय के शेड तले खड़े कई लोगों में आठ-दस स्ट्रगलर खड़े दिख
गये। उनमें वह कुछ के नाम जानता था और कुछ को सिर्फ स्ट्रगलर के रूप में जानता था। अचानक शिखर के मन में मानसरोवर टाकिज के पास का लेबर चौराहा जीवित हो उठा। इलाहाबाद के दिहाड़ी मजदूर काम की तलाश में सुबह – सुबह उसी चौराहे पर इकट्ठा होते थे, इस उम्मीद के साथ कि दिन में कोई काम मिल गया तो शाम तक सौ – पचास रूपये का जुगाड़ हो जायेगी। अपने बीवी बच्चों के झुंड के साथ सैकड़ो मजदूर मक्खियों की तरह भिनभिनाते रहते थे। किसी को नल लगवाना,  जमीन खुदवाना , सामान ढ़ोवाना , उखड़ी  पलस्तरे फिर मरम्मत करवानी है, दीवारें पुतवानी है ऐसे कई छोटे- मोटे काम की वेकेन्सी के आधार पर अपनी दिहाड़ी तय करके वे मालिक के साथ निकल पड़ते थे। जरूरी नहीं कि सब के सब को काम मिले। दोपहर ग्यारह-बारह बजे तक वे अभागे मजदूर सिर पर हाथ धरे बैठे रहते है जिन्हें उस दिन कोई काम नसीब नहीं होता था। मध्य दुपहरिया चढ़ते -चढ़ते वे सब वहाँ से चलते हो जाते और दिन भर शराब-जुए की लत में खोये पड़े रहते । और दूसरे दिन नहा-धोकर सुबह – सुबह एक बार फिर अपने आपको नुमाईश का हिस्सा बनाकर खडे़ हो जाते।
मानसरोवर के लेबर चौराहा की तरह यहाँ जुहू का बस डिपो भी स्ट्रगलरों का चौराहा था। बस डिपो की तरह बांद्रा के सहकार भंडार और आदर्श नगर के मोड़ पर भी स्ट्रगलरों का जमावड़ा होता था। स्ट्रगलरों का यह चौराहा कई मायनों में अन्य लेबर चौराहों से अलग होता था। जैसे स्ट्रगलरों की भीड़ सुबह न लगकर  दोपहर से शाम तक जुटती थी। कोई निर्माता -निर्देशक इन चौराहों पर आकर किसी स्ट्रगलर से काम या दिहाड़ी तय नहीं करता था। जगह – जगह से काम की तलाश में भटकने . के बाद फिल्मी स्ट्रगलर यहाँ आकर कुछ देर विश्राम करने के बाद फिर काम की तलाश में भटकते थे। ऐसे चौराहे पर आकर रुकने का मतलब  था कि कौन से फिल्म की मुहुर्त कब है, किस की शुटिंग कहाँ हो रही है  किस प्रोडक्शन में कौन कास्टींग कर रहा है, किसके पास जाने से काम बनने की गुंजाइश है , कौन सी फिल्म हिट हुई, फ्लाप  हुई तो क्यों हुई, कौन सी युनिट कब आउटडोर जा रही न है, कौन सा बैनर अच्छा पेमेंट करती, कितने कितने पैसे किस प्रोडक्शन मैनेजर ने मार लिये, कहाँ – कहाँ, किस थियेटर ग्रुप की ड्रामा रिहर्सल हो रही है??? ऐसे कई सवालों के उत्तर यहाँ बड़ी आसानी से मिल जाते थे।
एक हिसाब से देखा जाये तो इस चौराहे पर आनेवाले सभी स्ट्रगलर आपस में अपने अनुभव को बांटते थे। नई-नई जानकारियों एवं सूचना का आदान-प्रदान होता था। पिछले चार वर्षों से शिखर भी इसी चौराहे का एक स्ट्रगलर है जो दूसरे स्ट्रगलरों की आपबीती सुनकर भयभीत हो जाया करता है। ऐसे चौराहे पर खड़ा होकर शिखर अपने आपको एक मजदूर  हैसियत वाला शख्स समझता है…. बिल्कुल मानसरोवर के लेबर चौराहा वाले मजदूर की तरह।
कुछ देर तक सुस्ताने के बाद उसे लगा कि चल कर अशोक सागर से मिलना चाहिये। जैसे नौ मुलाकातें वैसे एक और दसवीं मुलाकात भी सही। मुलाकात के अलावा और कोई चारा भी तो नहीं था। मिलने में क्या हर्ज? पैदल ही तो जाना है। कौन से बस के भाड़े खर्च होनेवाले है? बात नहीं बनी तो अशोक सागर फिर दस दिन बाद आने को कहेंगे….. और कहीं बात बन गई तो शायद कोई छोटा-मोटा रोल मिल जाये। शिखर ने अपनी हिम्मत बटोरी और निकल पड़ा अपनी मंजिल की ओर…..
ऑफिस पहुँचने पर पता चला कि अशोक सागर मयूर बंगले में शुटिंग कर रहे हैं। मयूर बंगला वही पास में एक ही किलोमीटर के दूरी पर था। बंगले के बाहर जनरेटर बैन घर्रऽऽर्रऽऽ कर रहा है। अंदर  लॉन में लाइट शिफ्टींग का काम हो रहा है। एक पेड़ के नीचे अशोक सागर कुछ और लोगों के साथ कुर्सियों पर बैठे हैं। शिखर मन में एक अवसाद भर उठा- मिले की न मिले; क्योंकि लोग जो उनके बगल में  बैठे हैं,  उनके सामने बात करना कुछ ठीक नहीं लगा। लेकिन डर था कि एक बार फिर कहीं शुटिंग में कहीं व्यस्त हो गये तो बात करने का मौका ही नहीं मिलेगा। मन में उधेड़बुन को छितरा दिया जो एक ठोस आकार लेनेवाली थी। अशोक सागर के सामने खड़ा होकर शिखर ने दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार किया। उन्होंने हाथ से पाँच मिनट रूकने  के लिए संकेत दिया। इस रूकने के संकेत से शिखर की छाती में हवा भरने लगा। उसे लगा वह धीरे – धीरे गुब्बारे की तरह जमीन से उपर उठ रहा है। अशोक सागर तो यह भी कह  सकते थे कि अभी कुछ खास नहीं हैं ,  दस दिन बाद आकर ऑफिस में मिल लेना। शायद मेरे लिये कोई रोल हो, इसलिये इन्होंने मुझे रूकने के लिए कहा । शिखर अपने रूकने के कारण को जस्टिफाई करने के प्रयास में व्यस्त है। एक निराशाजनक विचार मन में फिर कौंधा।…. हो सकता है बातचीत के दौरान डिस्टर्बन हो, इसलिए उन्होंने मुझे रूकने का इशारा किया। लेकिन उनके चेहरे पर ऐसी कोई  झुंझलाहट तो नहीं दिखी कि मेरे नमस्ते करने पर उन्हें कोई डिस्टर्बेंस महसूस हुई हो।  शिखर अपने ही उधेड़बुन में उलझ – सुलझ रहा था कि अशोक सागर लॉन से उठकर बंगले में चले गये। जब  उसके उलझन की तंद्रा टूटी तो वह भी बंगले के अंदर गया। अशोक सागर अपने कैमरामैन को बता रहे थे कि मिथिलेश चतुर्वेदी की एन्ट्री कहाँ से होगी और सुप्रिया विनोद कहाँ पर बैठी होगी। कैमरामैन ने बारह फीट की ट्रेक लगाने का एलान किया। सारे लोग अपने आप स्फूर्ति में अपना – अपना काम निपटाने लगे। ट्रॉली के पास खड़े दुबले – पतले अब्दुल सेटिंग वाले को देखकर शिखर को रूम पार्टनर स्वामी की याद आ गई। जो मर गया सो मर गया । उसके बारे में क्या सोचना । उसे तो अशोक सागर से मिलना है जो जीवित है और शुटिंग कर रहे हैं। उसे तो अपने लिए रोल चाहिए जो जीवित हो। स्वामी का क्या, वह मर गया ….किस्सा खत्म। जिंदा होता तो ट्रॉली खींच रहा होता नहीं तो किसी को फोन खड़खड़ाकर पूछ रहा होता, साब शुटिंग कब से है? उसकी नजरे निर्देशक को ढुंढ़ने लगी। वे एक कोने में सोफे पर बैठे  मिथिलेश चतुर्वेदी को कैरेक्टर का मूड समझाने में व्यस्त थे। शिखर ने न आव देखा,  न ताव – सीधे उनके सामने जाकर खड़ा हो गया।
” ओ हाँ । अऽ ऽ ऽ क्या नाम है आपका ?”
” शिखर।”
” एक कैरेक्टर है , मुस्लिम यंग मैन का। दस – बारह  एपिसोड का काम है।…. करोगे?
” क्यों नहीं सर… जरूर करूंगा।”  मिथिलेश चतुर्वेदी की तरफ घूमकर, शिखर को दिखाते हुये बोले,   ” इनका  फेसकट थोड़ा मुस्लिम जैसा है। दंगे में जो लड़का आपका जान बचाता है, वो रोल फिट बैठेंगे न ?”  इस तरह से अशोक  सागर ने पूछा कि मिखिलेश चतुर्वेदी अपनी  क्या राय प्रकट करते हैं।
मिथिलेश चतुर्वेदी ने होठों को सिकोड़ते  हुये कहा,  ” हां। कान के खत  थोड़े छोटे करा दो। गेटअप में पक्का मुसलमान लगेगा।”
मुस्काराते हुए शिखर अपने दोनों खतों की लम्बाई टटोलने लगा।
” कल चांदीवली में सुबह की शिफ्ट है। नार्मल । जाकर सुरेश से मिल लो।  सुरेश पिल्ले। वो प्रोडक्शन मैनेजर है। उससे अपनी पर डे तय कर लो।”  अशोक सागर का आदेश सुनकर दोनों जन को नमस्ते, थैंक्यू  कहते हुये खड़े- खड़े बिना मुड़े चार कदम पीछे गया। उसके बाद करीब तीन घंटे बाद वह सुरेश पिल्ले के सामने था । सुरेश पिल्ले  कहीं बाहर गया हुआ था। शिखर की बातें सुनने के बाद पिल्ले न झट से कहा,  ” कितना पर डे लोगे?”
” अब  मैं क्या कहूँ?”
” काम तो तुम करोगे तो डिमान्ड भी तुम ही करो।”
” पैसे-वैसे के बारे में मैं कुछ नहीं बोलूंगा ।आप ही  कन्फर्म करो I”
” आठ-दस एपिसोड का काम है। तीन चार महिने में बीस पच्चीस दिन शुटिंग होगी। मैं तीन सौ पर डे  दूंगा और शुटिंग कन्वेयस सौ रूपये ।
” ठीक है।” बिना एक क्षण गवाये शिखर तैयार हो गाया भला अंधे को क्या चाहिए? सिर्फ दो आँखे। चाहे भूरी हो या काली। भेंगी हो या दबी हुई। क्या फर्क पड़ता है l
सुरेश पिल्ले ने जेब से एक विजिटिंग कार्ड निकाल कर शिखर के हाथ में देते हुये बोला,  ” वैसे कल चांदीवली में नार्मल शिफ्ट है लेकिन फिर भी रात को नौ साढ़े नौ बजे इस फोन पर कन्फर्म कर लेना। ठीक है।”
ठीक है तो मैं चलू। थैंक्यूI” हाथ मिलाकर  सीधा बंगले से बाहर । मानों किला फतह कर आया हो। ईश्वर मेहनत का फल जरूर देता है….. देर से ही भला।
                                  * * *
” जीवन एक संघर्ष  है इस्माईल।” बीयर का नशा बिहारी के सिर पर चढ़कर बोल रहा था, ” इस तरह हिम्मत हारने से कुछ नहीं होता।”
” तो मैं क्या करूँ? मैं बहुत टेंशन में हूँ।”  टेंशन की वजह से तीन पैग हलक के नीचे उतारने के बाद भी इस्माइल नार्मल है।
” स्ट्रगल करो और क्या? दौड़ोगे तो कहीं न कहीं कुछ काम बनेगा।”
” दौड़ तो रहा हूँ एक साल से…. लेकिन अब डर लगता है।” इस्माइल ने धीरे से एक घूंट अंदर ले लिया।
“तुम गलत दौड़ रहे हो। पहले एक्टिंग के लिये दौड़ते थे l दोन-तीन सिरियलो में काम मिला, क्राउड में कहीं  खड़े होने का। फिर दो -चार महिने कहीं कुछ नहीं। बिहारी बोलता जा रहा था, “फिर किसी ने ऑफर दे दी की असिस्टैंट डायरेक्टर बन जाओ। वह भी बन गये। अब रोज-रोज तो शुटिंग होती नहीं कि तुम्हें रोज पर डे और कन्वेयस मिलेगा।”   “इसलिये तो सोच रहा हूँ कि जब इसी इंडस्ट्रि में रहना है तो कुछ ऐसा काम करू ताकि घर का खर्चा पानी चलता रहे।” न चाहते हुये भी इस्माइल की तकलीफ उसकी जुबान पर आ गई।
” ओह । घर का खर्चा पानी?” बिहारी जोर से हंसा | बार में अगल-बगल बैठे लोग उसकी ओर देखने लगे। उसने अपनी हंसी को दबा लिया। फिर चारों तरफ देखा, सभी अपने पीने में व्यस्त थे। सिर को कुछ आगे ले जाकर बोला,  ” बरखुदार, आप अपने घर का खर्चा – पानी चलाने के लिये इस इंडस्ट्रि में आये है।”
इस्माइल कुछ झेप सा गया। उसने महसूस किया कि वह कुछ ज्यादा ही अपनी गरीबी के बारे में बोल गया।
” ये सच है कि इस इंडस्ट्रि में बहुत पैसा है।….. और बाहर वालों को लगता है कि जो लोग फिल्मों में काम करते है वह बहुत पैसा कमाते है।” आँखों को तेररकर गर्दन सीधी करते हुये बिहारी ने एक लंबी साँस छोड़ी, लेकिन लोगों को क्या पता कि एक स्ट्रगलर को कैसे पापड़ बेलने पड़ते है।” गिलास उठाकर उसने एक भारी भरकम घूंट हलक के नीचे उतारा। दोनों हाथों को अपने चेहरे पर लाकर ऐसे बोला जैसे  उपरवाले से कुछ कहना चाहता है,  ” ये बात अलग है कि स्ट्रगलर की तकदीर साथ दे जाये तो समझो दो गाड़ी, दो बंगले, बीसों फिल्में कहीं नहीं गईं है। ”  बायी आँख को दबाकर वह धीरे से बोला,  ” कहाँ आज एक भी नहीं,  हिट होने के बाद दो – दो  बीवीयां हो जाती है  इस्माइल।”  इतना कहकर वह फिर हँसा लेकिन गले में  खराश  आने के कारण हँसी ज्यादा खींच नहीं पाई।
इस्माइल ने भी साथ देने के लिए मुस्करा दिया। पैमाने को खाली देखकर बोतल से शराब ढ़ालने लगा। बीयर बार की मद्धिम रोशनी में शराब की धार चमक रही थी।
” अच्छा एक बात बता।” अब बिहारी कुछ गंभीर हो गया,   ” मैं मज़ाक नहीं कर रहा हूँ। ये एक्टिंग और डायरेक्शन छोड़कर अब तू इस इंडस्ट्री में रहने के लिये क्या करना चाहता है ?”
इस्माइल चुप ही रहा। वह केवल अपनी गिलास को एकटक देखता रहा।  ” बोल ना। नाराज हो गया क्या? ” बिहारी ने ठुड्डी पकड़कर उपर कर दी।
” बिहारी भाई, एक शौक था कि फिल्मों में कुछ ऐसा करूं कि बहुत नाम हो। खूप पैसा हो, अपन के पास।  ” शायद शराब  ने असर दिखाना शुरु कर दिया था, ” आपको मालूम ही है अब्बाजान पहले फिल्मों में फाईटर थे। लेकिन पिछले पाँच सात साल से उन्होंने इंडस्ट्रि  छोड़ दी है। बुर्जी पाव की गाड़ी लगाते है लेकिन उतनी कमाई से घर का खर्च नहीं चल पाता है।….. बहुत टेंशन होती है।”  वह आगे कुछ नहीं कह पाता।
” कौन-कौन है घर में?”  बिहारी मामले को समझ गया।
” अब्बा-अम्मी के अलावा तीन बहनें और हम दो भाई है। सबसे बड़ा मैं हूँ….. बस …..।”  आगे वह कुछ कहना चाहता था लेकिन कह न  सका। गिलास में बची शराब को एक घूंट में पेट के हवाले कर  दिया।
” तो क्या करना चाहता है तू? ”  बिहारी ने सीधा सा प्रश्न किया।
इस्माइल चुप ही रहा। कभी वह खाली गिलास को देखता तो कभी बिहारी को।
” अबे बोल ना। दिलीप कुमार की तरह इतना सिरियस
क्यों हो रहा है ?
कुछ देर चुप रहकर इस्माइल ने मन की इच्छा जाहीर की ,   “सोचता हूँ कि ड्रेस या मेकअप डिपार्टमेंट में घुस जाऊ। उसमे कम से कम रोज काम मिलता रहेगा। फिर कभी मौका मिला तो…..देखा जायेगा।
” अच्छा ये बता,”  बिहारी ने फिर कुरेदना शुरू किया,  “ऐसे कितने मेकअप मैन और ड्रेस मैन इस इंडस्ट्री में है जो मौका मिलते ही हीरो बन गये।?”
हीरो तो नहीं,  ” इस्माइल ने तुरंत जवाब दिया , ” वो नाम नहीं याद आ रहा है, एक मेकअप मैन जो अमिताभ बच्चन का बहुत पुराना मेकअप मैन था , उसने एक मराठी फिल्म प्रोड्यूस की थी। माईकल डिसूजा कभी स्पॉट बॉय हुआ करते थे लेकिन आज देखो,  मौका मिलते ही टॉप के डिरेक्टर बन गये।”  बिहारी बड़े ध्यान से सुन रहा था,  “अपने प्रकाश मेहरा साहब, उन्होंने क्या -क्या जिल्लत नहीं भोगी, लेकिन मौका….. ।
” अबे छोड़।”  बिहारी ने उसकी बात काट दी,  “वो प्रकाश मेहरा है, प्रकाश मेहरा और तू इस्माइल है।”  बिहारी कमजोर तर्क  कर रहा था, वो समय और था इस्माइल , जब यूसुफ मियाँ फल बेचते-बेचते हीरो बन गये, रजनीकांत कंडक्टर से हीरो बन गये , मुमताज एक्स्ट्रा से हीरोइन बन गयी, राजकुमार इंस्पेक्टर से हीरो बन गये। तब का समय कुछ और था…. और उस समय इस इंडस्ट्रि में पारखियों की भरमार थी। लेकिन अब समय बदल चुका है।” बिहारी को लगा कि अभी भी वह कमजोर तर्क दे रहा है।  उसने अपनी आवाज को थोड़ा और कसा,” आज इंडस्ट्रि की रफ्तार तो देख । जो मौका मिलना है आगे बढने में ही मिलेगा। ये अपने आपको डिग्रेड करने में कोई मौका हाथ अनेवाला नहीं है….. हाँ ये अलग बात है कि तू अपने परिवार का सहारा बन जायेगा।”  बिहारी चुप हो गया।
इस्माइल भी किसी सोच में पड़ गया। घड़ी ने रात के साढ़े ग्यारह बजे का एक टंकार लगाया। दोनों की नजरें घड़ी पर गई। अभी बार बंद होने में आधा घंटा था। बिहारी ने फिर महसूस किया कि वह ठीक ढंग से अपनी बात को  कह न पाया। कुछ देर तक आँखे बंद  करने के बाद बड़ी मुश्किल से उसने पलके उठायी। आँखो में लाल डोरिया उभर आयी थी। बिहारी ने दिमाग में कुछ कौंधा, उसने चुटकी बजाई और बोलना शुरू किया,  ” इस्माइल , तुने सड़कों पर चूहा मारने वाली दवा बेचते लोगों को देखा है? कितना कमा लेते होंगे बिचारे….यही कोई पचीस – पचास रूपया। और तुमने सुना होगा कि बंबई में  ” सुपारी लेने – देने का भी धंधा चलता है।” इस्माइल कुछ समझ नहीं पाया।
” अरे वही सुपारी, किसी को मारने का ठेका। इसको उड़ाने का दस लाख उसको उड़ाने का बीस लाख ।”
इस्माइल को कुछ – कुछ समझ में आने लगा। बिहारी अपनी रौ में था । ” चूहा मारा तो बीस-पच्चीस रूपये कमाया और आदमी मारा तो बीस-पचीस लाख । अब ध्यान दे। चूहा मारने की दवा बेचने वाला क्या कभी सुपारी ले सकता है ? नहीं न?
इस्माइल ने भी ना में सिर हिलाना ठीक समझा।
” मालूम है क्यों?” बिहारी पूरी तरह से शराब के आगोश में गिरफ्त हो चुका था,  ” वो इसलिये कि उसके पास कलेजा  नहीं होता। बीस – पचीस रूपये में ही वह अपनी जिंदगी गुजार देता है। मेरे बाबूजी कहा करते थे, बिहारी की जीभ लड़खड़ाने लगी, ” मारो तो शेर लूटो तो खजाना । हिम्मते मर्द मददे खुदा। हिम्मत मत हार प्यारे। हिम्मत मत हार।” बिहारी उत्तेजना में जोर – जोर से बोलने लगा,  ” मेरे को जो कहना था मैंने कह दिया। अब आगे की तू सोच।”  इसी के साथ बिहारी की गर्दन और जबान ने जवाब दे दिया। इस्माइल समझ गया कि अब यहाँ बैठना ठीक नहीं है। उसके इशारे पर वेटर ने बिल लाकर रख दिया। इस्माइल के झिंझोड़ने पर बिहारी थोड़ा मुस्तैद हो गया। बिल सामने देखकर उसने जेब से सौ रूपये का नोट निकालकर तश्तरी में डाल दिया।दो एक,  एक दो  कदम ताल करते हुये दोनों बीयर बार से बाहर निकल गये।
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इस्माइल के अब्बा नजीर भाई माहिम सिग्नल मोड़ के अंतिम छोर पर ठेला लगाते हैं। बीस साल की उम्र में. अपना घर – गाँव छोड़कर हीरो बनने के चक्कर में  बंबई आये थे…. तब मुंबई  , मुंबंई नहीं बंबई थी। मुरादाबाद का यह लोंडा बिना टिकट के जुर्म में पकड़ लिया जाता है और सात दिन की जेल हो जाती है। चपटे काले तावे पर आमलेट उलटते पलटते हुये नजीर भाई जेल में हुये हादसे से लेकर किस तरह उनकी फिल्म लाईन में एन्ट्रि हुई, वो क्यों हीरो नहीं बन पाये और फाईटर बन गये…. अपने बीते  दिनों की कहानी अपने ग्राहकों सुनाते  जाते है। लेकिन अंदर ही अंदर उनके मन में दुखों का अंबार लगा हुआ है। पैंतीस साल तक हजारों फिल्मों में ढ़िशूम ढिशूम करने के बाद आज मजबूरी यह है कि सांझ को आमलेट बुर्जी पाव की गाड़ी न लगाये तो घर में चूल्हा न जले। सारी जिंदगी काँच की दिवार तोड़ी , हीरो के झूठ-मूठ के मुक्के खाकर मशीन की तरह जमीन पर गिरने की वजह से आज उनके पैर के पोर पोर में गठिया की शिकायत थी लेकिन तावे पर कही आमलेट जल न जाये, उसे बचाने के चक्कर में अपने रोजी रोटी में फाइटरी  कर  रहे है। आज भी उनकी आँखों में पानी भर  आता है। उन्हें इस बात का अफसोस है कि वो हीरो न बन सके। हीरो न सही  छोटे मोटे चरित्र अभिनेता बन पाते। वह भी न बन सके। फाईटर थे तो फाईट मास्टर बन जाते….. लेकिन किसी ने उन्हें मौका नहीं दिया। फाईट मास्टर न सही , फाईट का काम करके ही अच्छे पैसे बचा लेते तो आज उन्हें ठेला न लगाना पड़ता। जिंदगी बीतती चली गई। परिवार का पेट पालने में ही नजीर भाई लगे रहे…. शायद किस्मत को यही मंजूर था…. और अब उनका बेटा इस्माइल….. फिल्म लाईन  में अपनी किस्मत तलाश रहा है।
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सांताक्रुज के समुद्री किनारे से वर्सोवा तक पैदल पहुँचने में लगभग दो घंटे लगते हैं। समुद्र किनारे का इतना इलाका बंबई के पर्यटन स्थलों में अपना एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। कोई बंबई जाये  और जुहू चौपाटी का दर्शन न करे, तो ये समझो कि उसका बंबई घूमना बेकार हो गया। जब कोई बाहर का आदमी बंबई आता है तो उसके मन में जुहू चौपाटी घूमने की तीव्र अभिलाषा होती है। जुहू चौपाटी गये तो समझो भेलपुरी खाना ही खाना है। ” चौपाटी जायेंगे भेलपुरी खायेंगे ” फिल्मी गाने ने चौपाटी और भेलपुरी को एक दूसरे का पूरक बना दिया है। एक बात और.. यदि आपको घूमाने कोई बंबई वाला ले गया है तो जुहू चौपाटी जाते समय या वहाँ से लौटते समय वह आपको सुपरस्टार अमिताभ बच्चन का बंगला ”  प्रतीक्षा”  दिखाना नहीं भुलेगा ।  सुबह हो या शाम, दोपहर हो या आधी रात जुहू चौपाटी हमेशा अपनी रंगीनी में मस्त रहती है। शाम के समय मस्ती का आलम अपने चरम सीमा पर होता है। सुबह , दोपहर, शाम और

रात-पहर बदलता रहता है, .चौपाटी पहुँचने वाले लोग बदलते रहते है। दोपहर के समय दिवारों की आड़ में बैठे प्रेमी जोड़ियों दुपट्टे के भीतर प्यार- मुहब्बत का खेल खेलते हैं। शाम के समय लोग अपनी बीवी- बच्चों के साथ तफरी करने आते है। रात दस बजे के बाद अंधेरी रात में झाड़ियों के पीछे वासना का खेल होता है। पेशेवर लड़कियों अपने ग्राहकों के साथ देह व्यापार करती है।
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जिस दिन कोई शुटिंग नहीं होती थी उस दिन जॉली एक डेढ़ बजे तक एयर बैग में कोई न कोई सामान भरकर चौपाटी पहुँच जाता था । चौपाटी आने के पहले वह दो-चार ऑफिसों में स्टूगल करता हुआ छः सात बजे के बाद जरूरी फोन करके अपने कॉन्टेक्ट को तरोताजा किये रहता था। जॉली, एक दुबला पतला मरियल सा पच्चीस-छब्बीस साल का युवक, सीने के साथ गाल भी अंदर, पेट और पीठ को घेरती हुई छब्बीस इंच की कमर , आँखे धंसी हुई,  उपर से माइनस पावर का गोल्डेन फ्रेम का गोल काँच वाला चश्मा, चार्ली चैपलिन की तरह सिर पर चपेट बाल लेकिन मूँछ दाढ़ी बिल्कुल क्लीन। चुस्त पैंट, गले में लाल हरी टाई, ढीला शर्ट और पैरों में महंगा जूता। पीठ पर काले रंग की चमड़े वाली बैग जिसमें कभी शर्ट पीस है तो कभी टोपाज ब्लेड का भंडार। कभी मसाज करने की प्लास्टिक मशीन तो कभी अमेरिकन रेजर। चौपाटी के बलूए मैदान में कहीं भी खड़ा हो गया, अपने सामानों की नुमायश लगा दी। दो ,चार , दस, बीस लोग खड़े हो गए और  जॉली का लेक्चर शुरू; ये पीटर इंग्लैंड कंपनी का शर्ट है, कपड़ा एदम फर्स्टक्लास और सिलाई की हंडरेड पर्सेंट गारंटी। इस मंहगाई के दौर में सिर्फ सौ रूपये, सौ रुपये। कभी टोपाज ब्लेड की दुकान खोल ली, दुकान में लेने जायेंगे तो एक पैकट आपको साढ़े सात रूपये पड़ेगा। लेकिन यहाँ आपका होलसेल के रेट में मिलेगा। छह रूपये में पैकेट । एक पैकेट में पाँच ब्लेड। सोचो मत। सोचने से एनर्जी लॉस होती है। और जब दाढ़ी  रोज ब रोज बनानी है तो सोचना क्या? छह रूपये छह रूपये। कहने का अर्थ यह है कि जॉली के सेल्समैन शीप इतनी आकर्षक थी कि ग्राहक के जेब में यदि पैसे हैं तो वह लेने में बिल्कुल नहीं हिचकेगा।
कोई शर्म या झिझक नहीं कि एक आर्टिस्ट होकर सड़क पर सामान बेच रहा हूँ। भीड़ को यह बताते हुये जॉली बड़ा गर्व महसूस करता कि किस किस फिल्म और सिरियल में  उसने कौन कौन सा रोल किया है। देखने वाले उसे देखते रहते ओर  जो वह कहता उसे ध्यान से सुनते। किसी की आँखों में अविश्वास देखता तो अपने शुटिंग के फोटोग्राफ उन्हें थमा देता। और इस तरह से जॉली देखते ही देखते अपने सामने जुटाने में सफल हो जाता। नगद सौ से पाँच सौ का धंधा करके जॉली अपनी राह पकड़ लेता। दिल्ली के सदर बाजार का निवासी गॉली बंबई की फिल्मी दुनिया में किस्मत आजमाने आया है। वह असरानी, महमूद और जगदीप की तरह एक हास्य कलाकार  बनकर गाड़ी , बंगला, पैसा और नाम कमाने की महत्वाकांक्षा रखता है। चिंचोली फाटक , मलाड स्थित गणेश मंदिर की एक छोटी सी कोठरी उसका आश्रय स्थल है। एक पड़ाव , जो दिल्ली के सदर बाजार से चलकर कुछ वर्षों के लिए यह गणेश मंदिर की कोठरी एक पड़ाव है जहाँ से उड़कर उसे चौपाटी के समुद्र के किनारे स्थित किसी फ्लैट में पहुँचने की तड़प थी।
होटल सन एण्ड सैंड के पीछे बालूई तट पर जॉली का मजमा लगा हुआा है। आज वह मसाज करने की रोलर मशीन  लाया हैं। दाम है सिर्फ एक सौ पच्चीस रुपये । ग्राहकों की हुज्जत करने पर वह नुकसान का आलाप करते हुये ग्राहक पर मानों एहसान कर रहा है, सौ रुपये में ग्राहकों  को थमा देता ।  इससे कम दाम की गुंजाइश नहीं। क्योंकि जॉली को एक एक मसाज रोलर के पचहत्तर रूपये में पड़ी थी। धंधे के लिए उसकी चिल्लम चिल्ली जारी  है और भीड़ में फिल्मी पत्रकार राजजी खड़े होकर उसे ध्यान से सुन और देख रहे है। खड़ी भीड़ के एक-एक व्यक्ति के हाथ, पैर, कमर और कंधे पर वह अपना मसाज रोलर फिरा -फिरा कर पक्का विश्वास दिला रहा है कि इस प्रोडक्ट को लेने में कोई घाटा नहीं है। एक दो बार उसने राजजी के  हाथ पैर पर भी रोलर घुमाया। राज जी जॉली को जानते थे क्योंकि कई बार उन्होंने उसे किसी सेट या स्टुडियों में दो-तीन धारावाहिकों में छोटे-छोेटे रोल करते देखा था। आमने सामने मुलाकात का यह पहला मौका था। देखते ही देखते तीन-चार मसाज रोलर बिकने के साथ भीड़ छट गई।
” और गुल्लू राम के सेक्रेटरी।” राजजी ने छींटा कसा I
बैग को बंद करते हुए हाथ वही रुक गये। बैठ बैठे पीछे मुड़कर देखा तो कुर्ते पाजामें में एक आदमी खड़ा है जिसकी उम्र का अनुमान लगाना मुश्किल था।  ” मैंने आपको पहचाना नहीं सर?” जॉली ने खड़े होकर पूछा।
” मुझे नहीं पहचानते लेकिन मैं तुम्हें अच्छी तरह पहचानता हूँ।”
” आपने मुझे  “गुल्लूराम” सिरियल में देखा होगा।”
” करेक्ट”
” मेरा नाम जॉली है।” अपने हाथ को आगे बढ़ाते हुये,  ” आपकी तारीफ सर?”
” मैं फिल्म जर्नलिस्ट हूँ । राज”  उन्होंने भी हाथ आगे बढ़ाकर उसका अभिवादन  स्वीकार  किया ।
” ओह। तब तो आप अपनी लाइन के है। नाइस टू मीट यू ” जॉली ने  औपचारिकता पूरी की।
” अच्छी एक्टिंग कर लेते हो। कैमरे के सामने और सामान बेचते हुये भी ।”
” पापी पेट का सवाल है। सर, अब बंबई में रहना है तो कुछ न कुछ करना है।”
” ये तो अच्छी बात है। वैसे कहाँ से बिलांग करते हो?
” मैं दिल्ली का रहने वाला हूँ सर।….. और आप?”
” बंबई का ही समझो। कर्मभूमि तो यही है।”
जॉली ने और ज्यादा जोर न देकर कॉफी पीने के लिए आमंत्रित किया। राजजी ने थोड़ा  ना  नुकुर की तो,  दो घंटे चिल्लाते चिल्लाते गला बैठ गया है  सर। चाहता हूँ आप भी मेरा साथ दे”  कहने पर राजजी इंकार न कर सके। दोनों पास की ही एक  टी स्टॉल पर   पहुँच गये। जॉली ने दो प्लेट वड़ा तुरंत टेबल पर आ गई। खाने के साथ बातचीत का सिलसिला शुरू हो गया।
“कितने सालों से हो  यहाँ …” कुछ सोचते हुये “मिस्टर जॉली?”
“मुझे मिस्टर न कहे सर। जॉली ही ठीक है ।” राजजी हल्के से मुस्करा दिये।
” दिल्ली से आये सात-आठ महिने हो गये है। फुल टाइम स्ट्रगल करता हूँ और पार्ट टाइम में ये डिमास्ट्रेशन सेलिंग जॉब ।”  एक ही सांस में जॉली कह  गया।
” सेल्फ इंन्डेपेन्डेन्ट होना अच्छी बात है। और वैसे भी  बंबई में किसी पर बोझ बनने से अच्छा है कि छोटा-मोटा कुछ न कुछ करते रहना चाहिये।”  राज जी ने हौसला बढाने के लिये यह बात कही ।
“हाँ-चल रही है गाड़ी।”  जॉली ने एक लंबी सांस छोड़ी।
“इस धंधे से आपको दो फायदे हैं। एक तो एनकम हो जाती है दूसरी रिहर्सल ।” दोनों साथ हंस पड़े l कुछ देर तक दोनों के बीच मौन रहा। अपनी – अपनी प्लेट  का वड़ा खत्म करने के मूड में थे। जॉली ने दो कड़क कॉफी का आर्डर भी दे दिया।
” जॉली, ये फिल्मी चक्कर है ही ऐसा,   राजजी ने हाथ को रूमाल से पोछ्ते हुए कहना जारी  रखा,   ” खासकर एक्टरों के लिए….. क्योंकि यहाँ की टाइम ड्यूरेशन तय तो है नहीं कि छ: महिने साल दो साल में आप कुछ करके पहचान बना ही लो। स्ट्रगल कितना लंबा खीचेंगा, ये तो भगवान ही जानता है।”
” वो तो है सर। बचपन से ही शौक था कि एक्टिंग करेंगे। इसी चक्कर में पढ़ाई भी गड़बड़ हो गई। दो तीन साल दिल्ली में झखमरी करने के बाद मुझे लगा कि अब बंबई चलना चाहिए… बस आ गया।’
” एक प्लस पॉइंट और है तुम्हारे पास।तुम्हारा बॉडी स्ट्रक्चर । इससे तुम्हारी अगल पहचान बनेगी भीड़ में खो जाने का डर नहीं है।”  एक बार फिर राजजी ने हौसला बढाया।
“थैंक्यू सर। आपने सही कहा I  एक्चुली मुझे अब तक जो भी थोड़े बहुत रोल मिले हैं,  सब में डिफरेंट शेड था। इस बॉडी की वजह से क्या है, कि मैं डायरेक्टरों की निगाह में बैठ जाता हूँ। कभी कुछ ऐसा कैरेक्टर निकलता है तो मुझे जरूर बुलाते है।”  जॉली ने अपनी बॉडी के फायदे बताये।
” बुलायेंगे ही ।”
दो कॉफी टेबल पर आ गई थी। कॉफी की चुस्कियों  के बीच कई तरह की बातें हुई। एक दूसरे के टेलीफोन नंबर का आदान-प्रदान हुआ। जॉली ने तीन – चार फोटोग्राफ राजजी को थमा दिये। उन्होंने कहीं न कहीं रिक्मेंड करने का वादा किया। कॉफी खत्म हो गई। बिल चुकाने के लिए दोनों ने एक साथ रूपये निकाले। लेकिन जॉली ने जबरदस्ती खुद बिल पेड किया। टी स्टॉल के बाहर दोनों सड़क पर आ गये।
” सर,  आपने बताया नहीं कि किस अखबार के लिये लिखते हैं आप?” जॉली ने पूछा।
” मैं ….. किसी एक अखबार में नहीं, हिन्दुस्तान के   छब्बीस अखबारों के लिये लिखता हूँ। मेरे लेखों के अंग्रेजी और अन्य भाषा में अनुवाद करीब बारह अखबारों में छपते रहते है।” राजजी ने अपने कौशल का परिचय दिया।
” ग्रेट सर।  यू आर ग्रेट। मैं समझता हूँ कि इस तरह फिल्म रिपोटिंग के आप सुपरस्टार   जर्नलिस्टि है ।”  जॉली ने भी तारीफ के पुल बांध दिये।
नहीं ऐसी बात नहीं है  ।यहाँ एक से बढ़कर एक महारथी पड़े हुये है लेकिन  इतना है कि इंडस्ट्रि के सभी नये पुराने लोग मुझे जानते है।”  राजजी ने कहा।
” आज से मैं भी जान गया सर।” जैसे जॉली ने कोई बड़ा तीर मार लिया हो। ऐसी कई तरह की बातें होती रही l बातों की परीधि फिल्मी क्षेत्र के भीतर की ही थी। दो ढ़ाई घंटों के बाद लगा कि अब चलना चाहिए। फिर मिलने- मिलाने के वादों के साथ दोनों बंबई की भीड़ में खो गये।
                                          * * *
अंगूर की बेल को  सूखे बांस का सहारा चाहिये। अंगूर की लता बेल बांस को लपटते हुये  धरती से उपर चार – पाँच फीट पर छा जाती है। और समय आने पर उसमें  अंगूर के दाने लगने शुरू हो जाते है । पर्वतारोही को हिमालय पर चढ़ने के लिये रस्सी की जरूरत होती है। मजबूत रस्सी के साथ यदि पर्वतारोही की कलाई मजबूत है तो ऊंचा से ऊंचा पर्वत भी झुक जाता है। नये नये स्ट्रगलर जिन्हें मार्गदर्शन  करनेवाला कोई गॉडफादर नहीं होता है तो उनके लिये सिनियर स्ट्रगलरों का सहयोग बहुत ही फायदे मंद साबित होता है। पुराने  स्ट्रगलरों का भोगा हुआ कष्टकारी अनुभव नये स्ट्गलरों के लिए एक  “लेसन” बन जाता है। पुराने स्ट्रगलरों के बनायी हुई पहचान से नये स्ट्रगलरों के कई काम आसानी से बन जाते हैं। आवश्यकता इस बात की है कि दोनों के मन में एक दूसरे के प्रति सुखद सद्भावना हो ।
इसी सद्भावना के कारण शिखर,  निरंजन पागल को एक बहुत बड़े निर्माता – निर्देशक डी. डी. राव से मिलवाने ले जाने के लिए बांद्रा स्टेशन के सामने वाले बस स्टॉप पर खड़ा है। डी. डी. राव ने कई सुपरहिट फिल्मों का निर्माण और निर्देशन किया था। निर्देशक अशोक सागर से गहरी दोस्ती होने के कारण वे   “हिंद के बाशिंदे” के सेट पर अक्सर आया करते थे। वहीं पर उन्होंने शिखर को ” अली हसन”के गेटअप में देखा था । शुटिंग के समय कैमरे के सामने उसके सहज अभिनय और दमदार संवाद अदायगी से वे इतना प्रभावित हुये कि उन्होंने शिखर को अपनी अगली फिल्म में लेने का पक्का वादा किया था। दोनों के बीच टेलीफोन पर  हाय हैलो का सिलसिला शुरू हो गया । एक दिन ऎसे ही बातचीत में डी. डी. राव ने शिखर को बताया कि उन्हें अपनी अगली फिल्म के लिए धांसू कहानी चाहिये जो आज के लीक से थोड़ा हट कर हो। निरंजन पागल ने शिखर को कई स्टोरी आइडिया सुनायी थी जो  उसे सुनने में अच्छी लगी थी। उसने निरंजन पागल से बात की और आज के दिन डी. डी. राव से  उनके घर पर मीटिंग तय हुई।
शिखर साढ़े दस बजे बस स्टॉप पर  खड़ा हो गया और पौने ग्यारह के करीब निरंजन पागल यहाँ पहुँचा I आज वह दिखने में कुछ ज्यादा ही हैंडसम लग रहा था। टाइट नीले कलर की जींस, खादी का शर्ट, काली चमकदार चमड़े की बेल्ट, उपर से एक पतली मरून कलर की जैकेट, पैरों में कोल्हापुरी चप्पल और हाथ में कहानी की फाइल । भीनी इत्र की खुश्बू भी महक रही थी।
” इस हाल में देखकर तुम्हें देखकर कौन कहेगा कि तुम पागल हो ।” शिखर ने फिकरा कसा ।
” पागलपन तो मेरी लेखनी में है। मेरी दीवानगी नई नई कहानियाँ के सोचने और लिखने में है।”  निरंजन पागल ने अपने नाम को परिभाषित किया।
दोनों एक रिक्शा में युनियन पार्क, खार के लिए  रवाना हो गये। मिलने मिलाने की औपचारिकाता के बाद डी. डी. राव ने उनके सामने दो गिलास में ठंढा कोल्ड्रिंक पेश किया। थोड़ी बहुत यहाँ वहाँ कि बातें होने के बाद निरंजन पागल ने अपनी कहानी को विस्तार से बताना शुरू किया। हालांकि इसके पहले वह कई बी और सी ग्रेड के निर्माता – निर्देशक को अपनी कहानी सुना  चुका था। किसी नामी निर्माता – निर्देशक के सामने कहानी सुनाने का पहला सुअवसर उसे प्राप्त हुआ था,  वह भी शिखर के बदौलत । उसने बड़े विश्वास के साथ कहानी का ताना बाना बुनना शुरू किया –
“यह कहानी एक  ऐसे मध्यम वर्ग के युवक की दास्तान है जो एम. ए . तक पढ़ा लिखा है लेकिन बेरोजगार है । घर में उसका रिटायर्ड बाप अपाहिज है जिसने अपने बेटे के लिये बड़े सुंदर सपने संजोये थे। एक छोटा भाई कॉलेज में पढ़ाई कर रहा है जिसका ध्यान पढाई में कम और इधर उधर गलत  हरकतों में ज्यादा है। उसकी एक जवान बहन है जो एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी करती है जिसकी तनख्वाह से घर का खर्च बड़ी मुश्किल से चल पाता है। माँ के पेट में अल्सर है जिसका ठीक से इलाज नहीं हो पा रहा है। इस वजह से वह दिन रात कराहती रहती है। वह युवक जिसका नाम विजय है अपने माँ , बाप , भाई और बहन की तकलीफ को महसूस करता है लेकिन उनके के लिए कुछ न कर पाने की चिंता में दिन रात घुलता रहता है। जवान बेटी की शादी के लिए बाप चिंता की आग में झुलस रहा है लेकिन शरीर से लाचार होने के कारण कुछ भी न कर पाने के लिए मजबूर है। विजय दुसरों के दुख से दुखी हो जाता है और पैसे की मदद के अलावा वह तन मन से दुसरों के लिए सदा तैयार रहता है। उस इलाके में एक कुख्यात गुंडा कालिया है जिसके गैरकानूनी धंधो का जाल बिछा हुआ है। उसे कई बड़े नेताओं एवं पुलिस अफसरों का आशिर्वाद प्राप्त है जिन्हें वह मोटी रक्कम हफ्ते के रुप में पहुँचाता रहता है। संयोग से विजय को छौटा भाई कालिया के गिरोह में शामिल होकर छोटे-मोटे अपराध करना शुरू कर देता है। इस वजह से घर में तनाव बढ़ता है और एक दिन वह अपने माँ, बाप, भाई-बहन के साथ नाता तोड़ लेता है।
विजय के मोहल्ले में एक हिजड़ा जिसका नाम रेशमा है, अक्सर भीख मांगने या नाचने गाने आया करता है। एक दिन रेशमा कालिया के गुंडों द्वारा एक इमानदार पुलिस इंस्पेक्टर की हत्या करते हुये देख लेता है I इस हत्या के चश्मदीद गवाह को खत्म करने के इरादे से कालिया के गुडें रेशमा पर हमला कर देते है और उसे जान से मारकर चले जाते है । लेकिन उपरवाले की दया से रेशमा की मौत नहीं होती। वह अस्पताल में जीवन और मृत्यु के बीच झूलती रहती है। उसकी जान बचाने के लिए खून की जरूरत पड़ती है। कुछ हिजड़े खून देने के लिये तैयार होते हैं लेकिन उनका ब्लड ग्रुप मैच नहीं करता। अगर एक घंटे के अंदर खून नहीं मिला तो रेशमा का मरना तय था। अब हिजड़े को खून दे तो कौन दे ? ऐसे समय में विजय खून देने के लिए तैयार होता है ।  संयोग से उसका ब्लड ग्रुप मैच करता है और रेशमा की जान बच जाती है। एक दिन एक गुंडे की नजर उसकी बहन पर पड़ती है और वह उसके साथ बलात्कार करता है। जब विजय के छोटे भाई को यह पता चलता है तो वह उस गुंडे की हत्या कर देता है जो कालिया का बेटा था । कालिया विजय के छोटे भाई के नाम मौत का फरमान जारी करता है। वह कालिया के खिलाफ बगावत कर देता है उसे अपनी गलती का एहसास होता है । वह अपने भाई विजय के सामने पश्चाताप को प्रकट करता है। प्रायश्चित और इंतकाम की आग में जलता हुआ विजय का छोटा भाई एक दिन कालिया के हत्थे चढ़ जाता है और उसकी मौत हो जाती है । बेटे की मौत के सदमे से बाप पागल हो जाता है । अपने भाई की मौत के जिम्मेदार लोगों को सजा दिलवाने के लिए वह भ्रष्ट पुलिस अफसरों और सफेदपोश नेताओं के यहां चक्कर लगाता है लेकिन कोई भी उसकी मदद के लिए आगे नहीं आता । अंत में कालिया के खिलाफ विजय हथियार उठा लेता है । विजय की मां उसे ऐसा करने से रोकती है। इस लड़ाई में वह अपनी बेटी,  एक बेटे को खो चुकी है। उसका पति पागल हो चुका है । वह विजय को सौगंध देती है इस लड़ाई को यहीं खत्म कर दे। जो हुआ सो हुआ क्योंकि उसे डर है कि विजय भी उसकी गोद को सुनी ना कर दे मां की जिद्द के आगे विजय है बेबस हो जाता है और मजबूरी में हथियार रख देता है लेकिन कालिया को चैन कहा ? एक बार भी जिसने उसके साथ दुश्मनी मोल ली उसे जान से मारना अपना सिद्धांत समझता है । और एक दिन खुद कालिया अपने गुंडों के साथ आकर दिनदहाड़े मोहल्ले वालों के सामने विजय का सरेआम कत्ल कर देता है। इस हादसे को देखकर माँ गूंगी हो जाती है । पुलिस आती है। जांच होती है। लेकिन डर के मारे एक भी आदमी गवाही देने के लिए सामने नहीं आता। हिजड़ा रेशमा सभी मोहल्ले वालों से प्रार्थना करता है कि वह गवाही देकर कालिया के आतंक को खत्म कर दे। उसे जेल भिजवाये। लेकिन एक भी आदमी गवाही देने के लिए तैयार नहीं होता है। हिजड़ा रेशमा उन सब की मर्दानगी पर लानत भेजता है। उनकी इंसानियत और गैरत को गाली देता है। पूरे मुहल्ले के घरों में चूड़ियां और पेटीकोट, साड़ी भिजवाता है ।वह सबको  मरा हुआ कहकर एक एक आदमी  का नाम लेकर मातम करता है, रोता है ,स्यापा करता है कि कोई तो उसके खिलाफ बोले क्योंकि एक ईमानदार एस.पी. ने रेशमा से वादा किया था कि अगर एक भी चश्मदीद गवाह उसके खिलाफ बयान दे दे तो वे उसे जेल की सीखंचों  के भीतर कैद करके अदालत से इंसाफ दिलवायेंगे । लेकिन ऐसा कुछ नहीं होता।  तब हिजड़ा रेशमा एक फैसला करता है कि वह खून का बदला खून लेगा । …. और मजबूर होकर हथियार उठा लेता है। और कालिया के महल में आग लगा देता है। और कालिया को आग की लपटों में झोंक देता है | पुलिस उसे गिरफ्तार करती है। अदालत में अपना केस खुद लड़ता है और चिल्ला – चिल्ला कर भ्रष्ट पुलिस तंत्र और नेताओं पर कटाक्ष करता है । पूरी जांच के बाद कोर्ट उसे बाइज्जत बरी कर देती है।”

 इतनी कहानी सुनाने के बाद निरंजन पागल एक घूंट में एक गिलास पानी गले के नीचे उतार लेता है। कहानी सुनने के बाद डी .डी.राव कुछ सोचने के लिए मजबूर हो जाते  हैं ।शिखर समझ जाता है कि डी.डी .राव शीशे में उतर चुके हैं । “अरे निरंजन,  तुम तो सचमुच के पागल हो भई।” डी.डी. राव के गले से आवाज फूटी , “मैं इस कहानी पर जरूर फिल्म बनाऊंलगा। तुम एक काम करो,  मुझे इस कहानी की सीनाप्सीस वन लाइन स्क्रीनप्ले लिखकर पहले दो । इसके बाद फिर प्लानिंग करते हैं।  इतना कह कर उन्होंने दस हजार रूपये का चेक निरंजन पागल के नाम लिखा और पाँच सौ रूपये का नोट शिखर के हाथ में थमा दिया। निरंजन पागल एकदम अवाक रह आया। उसका गला रूंध आया । डी. डी. राव ने समझा कि शायद दस हजार की रकम निरंजन पागल को कम लग रही है ।   “यह तो साइनिंग अमाउंट है । स्क्रीन प्ले डायलॉग राइटिंग

के मैं तुम्हें चालीस हजार और दूंगा, वह भी पार्टली पेमेंट- हर महीने चार हजार रूपये । अब बोलो , खुश हो तुम ।”
निरंजन पागल की आँखों से गंगा जमुना की धारा बह निकली। इतनी जल्दी तकदीर बदल जाएगी,  ऐसा उसने कभी सपने में भी नहीं सोचा था। वह डी.डी. राव के कदमों पर झुक गया।
 डी.डी. राव ने उसे उठाकर गले लगा लिया । कुछ मिनट तक दोनों ऐसे ही एक दूसरे से लिपटे पड़े रहे। निरंजन पागल जब उनसे अलग हुआ तो उसने शिखर की ओर मुड़कर उसका गाल चूम लिया। दोनों एक दूसरे से गले मिले। शिखर ने खूब जमकर निरंजन पागल की पीठ ठोकी । मैं भगवान से यही प्रार्थना करूंगा कि डी.डी. राव साहब की फिल्म बने,  खूब चले और एज़ ए फिल्म राइटर तेरा सिक्का जमे ।”
डी.डी.राव के यहाँ से दोनों विदा होकर  बांद्रा के रेलवे क्वार्टर कॉलोनी में आए। बिहारी और विशाल वहाँ पहले से थे। फोन करके कुछ और  यार दोस्त बुलाए गए जिनमें जौली,  राजजी , लल्ली,  स्माइल, देव पांडे,  विजय मिश्र, सुरेश पिल्ले,  संतकुमार और अब्दुल मियाँ भी थे। सब ने खूब जमकर दावत  की और गैलेक्सी में “कुछ – कुछ होता है ” फिल्म देखी।
  इस फिल्म नगरी में कब किसके तकदीर का घोड़ा आगे निकल जाए,  कोई निश्चित नहीं । कौन सी फिल्म हिट हो जाए,  कौन सी दर्शकों द्वारा पीट दी जाए , हिट – फ्लॉप का कोई फार्मूला नहीं होता । कब कौन सा स्ट्रगलर झोपड़ी से निकलकर जुहू में बंगला खरीद ले,  कौन कब अपना गाड़ी बंगला बेचकर कंगाली में आत्महत्या कर ले , किसी के माथे पर नहीं लिखा होता। बड़ी निराली दुनिया है यह,  इसमें सात नहीं हजार रंग है।  इसलिए शोहरत पाने के लिए अपना सब कुछ दाव पर लगा देते हैं महत्वाकांक्षी स्ट्रगलर I फिल्मोनियाँ से पीड़ित नौजवान दिलीप कुमार,  राजेश खन्ना, या अमिताभ बच्चन बनने का ख्वाब लेकर बंबई आता है। शुरुआत के दिनों में वह इसी नशे में मस्त रहता है कि वह दिखने में हीरो है और मौका मिलते ही कुमार , खन्ना,  बच्चन की छुट्टी कर देगा। “आपन सोचा होत नहीं,   हरी सोचा तत्काल ।”धीरे-धीरे इस चकाचौंध की दुनिया में उसे अपनी हैसियत का पता चलता है । परिस्थितियों से दो-दो हाथ करते करते उसका मन अकुलाने लगता है। फिल्म नगरी की चुंबकीय आकर्षण उसे वापस लौटने नहीं देती। तब वह हीरो न बन कर कुछ और बनने लगता है – राइटर , डायरेक्टर , मेकअप मैन,  ड्रेस मैन,  स्पॉट बॉय…
 बाहर कॉलबेल का बटन दबाते ही अंदर “श्री राम जय राम जय जय राम” की संगीतमय ध्वनि गूंजने लगी।  दरवाजा खुला और बिहारी पर नजर पड़ते ही रश्मि ने मुस्करा कर अभिवादन करते हुए बिहारी को अंदर आने का इशारा किया । गुलाबी रंग की नाइटी में रश्मि का सौंदर्य और खिल रहा था। रेशमी,  काले,  चमकदार खुली जुल्फों को देखकर एक क्षण के लिए बिहारी को पता नहीं क्या हो गया हो जाता था।  रश्मि के साथ प्रत्येक मुलाकात में बिहारी  कुछ पल के लिए मदहोशी अनुभव करता था और अगले ही पल नार्मल । प फ्लैट में रश्मि और उसके भाई के अलावा कोई नहीं था। थोड़ी देर में मुसंबी का ज्यूस से भरा ग्लास बिहारी के सामने था। आज हैरी प्राश ने रश्मि  को “स्क्रीन टेस्ट के लिए बुलाया था। बिहारी ज्यूस अभी खत्म  नहीं कर पाया था कि  रश्मि साधारण सलवार कमीज पहने एक एयर बैग लेकर खड़ी हो गई।”
 “कहाँ?”बिहारी असमंजस में व था।
“होटल सिटीझन। और कहाँ ? रश्मि ने मुस्कुराकर जवाब दिया।
” अरे ऐसे?” साधारण कपड़े और बिना मेकअप के रश्मि “स्क्रीन टेस्ट”  में जाएगी , यह बात बिहारी की समझ में नहीं आ रही थी | हैरी प्राशजी ने कुछ साड़ियाँ,  जींस पैंट , और टी शर्ट लाने के लिए कहा था… और मेकअप की भी वही होगा | फिर यहाँ से तैयारी क्यों ?” रश्मि के बताने पर बिहारी के मन के असमंजस दूर हो गई ।
बोरीवली से रिक्शा पकड़ कर दोनों होटल सिटीझन पहुँचे। हैरी प्राश रश्मि का खुले मन से स्वागत किया और जल्द से जल्द कोई अच्छी साड़ी पहनकर और साधारण मेकअप में आने के लिए कहा । रश्मि तो मानो हवा में उड़ रही थी ।
”  आज देखते हैं,  रश्मि का चेहरा फोटोजेनिक है या नहीं”  इतना कहकर हैरी प्राश कैमरामैन और फोटोग्राफर को जरूरी निर्देश देने लगे। आधे घंटे बाद हैरी ने रश्मि को बुलाने के लिए बिहारी को भेजा। मेकअप रूम का दरवाजा खटखटा कर बिहारी की नजर जब आदमकद शीशे के सामने बैठी रश्मि पर पड़ी तो…. वह एकटक रश्मि को देखता ही रह गया।
” ऐसे क्या देख रहे हो ?” मेकअप मैन के पूछने पर रश्मि को पता चला कि रूम में बिहारी आया हुआ है।
” मैडम,  चलिए I शॉट रेडी है।”  सहायक निर्देशक के अंदाज में बिहारी के मुख से जब यह वाक्य निकला तो उसकी आंखों में रेखा का चेहरा छा गया । रश्मि ने आसमानी रंग की साड़ी और उसी रंग से मिलती हुई बिना बाहों की ब्लाउज पहन रखी थी। लंबे काले घने रेशमी चमकदार बालों को कंघी करके उसने खुला छोड़ रखा था । साड़ी की गांठे के दो अंगुल उपर नाभी को देखकर बिहारी के शरीर में रोमांच भर आया । पिछली बार से कहीं अधिक इस बार सुंदर लग रही थी रश्मि ….और बिहारी को विश्वास था कि अगली बार जब वह सजी-धजी रश्मि को देखेगा तो इससे भी अधिक सुंदर लगेगी। रश्मि बिहारी के  बिल्कुल करीब आ गई । इतना करीब पहले कभी नहीं आई थी। सुंदरी के सौन्दर्य में मदहोश बिहारी अमर्यादित होकर चुमने के लिए आगे बढ़ने ही वाला था कि रश्मि ने झुककर उसके चरण स्पर्श किए। बिहारी वहीं पर ठिठक गया।
“सर । आज का यह दिन मैं देख रही हूँ तो सिर्फ आपके कारण।”  बिहारी कुछ समझ नहीं पाया । रश्मि ने हाथ जोड़कर कहा, “सर ।मुझे आशीर्वाद दीजिए कि मैं इस परीक्षा में सफल रहूँ।”
 रश्मि की इस विनम्रता को देखकर बिहारी की सारी कामोत्तेजना कपूर की तरह उड़ गई । इस समय वह अपनी शिष्या के सम्मुख एक गुरु के रूप में खड़ा था।  दोनों हथेलियों को रश्मि के सर पर रख कर बड़े गर्व और गौरव के साथ बोला ,  “ऑल दी बेस्ट रश्मि ।ऑल दी बेस्ट।”
 “थैंक्यू सर।” कहते हुए रश्मि ने बिहारी की आँखों में झांका । सेट पर लगी सारी बत्तियाँ एक साथ जल उठी।
                                           ***
                                                 इस बंबईया बॉलीवुड में चार  तरह की फिल्में बनती है । चार तरह की फिल्मों को ए, बी, सी और डी  क्लास में बांटते हैं । ए क्लास की फिल्में वे फिल्में होती है जिसमें कोई मालदार निर्माता पैसा लगाता है । दो-चार  सुपरहिट फिल्मों का निर्देशक चार  पाँच महीने तक किसी फाइव स्टार होटल में बैठकर होनहार गरीब लेखक से एक प्यारी कहानी लिखवाता है। नामी गिरामी गीतकार और संगीतकार अच्छे मशहूर गायकों की आवाज में गाने रिकॉर्ड करवाता है। ए-वन टॉप के हीरो , हीरोइन , खलनायक और चरित्र अभिनेता इन फिल्मों में काम करते हैं । पूरी फिल्म के बनने में तकरीबन साल दो साल लग जाते हैं। पूरे देश में जमकर पब्लिसिटी की जाती है जिस पर लाखों रुपए पानी की तरह बहाया जाता है । दर्शकों में एक लहर पैदा की जाती है कि लोग उस फिल्म के प्रदर्शन का बेताबी से इंतजार करते हैं।  ए  क्लास की फिल्में जब थियेटर में लगती है तो पहले दिन यानी शुक्रवार के दिन पहले मैटिनी शो में पता चल जाता है कि चलेगी या नहीं। ए क्लास की फिल्में या तो सुपरहिट होती है या सुपर फ्लॉप ।
बी क्लास की फिल्मों का गणित इससे अलग होता है। ऐसी फिल्मों के निर्माता  , निर्देशक और कलाकार सभी बी ग्रेड के होते हैं । इन फिल्मों में जबरदस्त एक्शन,  अश्लीलता, फूहड़ कॉमेडी और चलताऊ किस्म के गाने होते है। ऐसी फिल्मों का एक अलग दर्शक वर्ग होता है जो फिल्मों को सिर्फ एक से तीन सप्ताह तक ही देखता है ।चौथे सप्ताह इन फिल्मों का कोई अता-पता नहीं होता । निर्माता के भाग्य पर निर्भर करता है कि फिल्म अपना लागत वसूल करके थोड़ा बहुत मुनाफा करवाती है या नुकसान ही नुकसान का सामना करना पड़ता है।
 सी क्लास की फिल्मों को “चूतरछाप” फिल्म कहते हैं जिसमें अश्लीलता के अलावा कुछ नहीं होता । ऐसी फिल्में एक घंटे से लेकर ढाई घंटे की होती है। नारी अंग का बड़ी क्रूरता के साथ फिल्मांकन होता है जिसे देखने वाले दर्शक चोरी – छिपे संभोग का अप्रत्यक्ष आनंद लेते हैं।  सी क्लास की फिल्मों को सेंसर बोर्ड आँख मूंदकर  “ए”  सर्टिफिकेट देता है और जब फिल्में सिनेमा घर में दिखाई जाती है तो उसमें अलग से नग्नता के कट रील जोड़ दिए जाते हैं । इन फिल्मों का वितरण नेटवर्क इतना मजबूत होता है कि दूरदराज के गाँवों के टूरिंग टॉकीज में से लेकर बड़े-बड़े शहरों के खटमल छाप खटारा थियेटरों में ये फिल्में  बिना किसी शोरशराबे के दिखाई जाती है।  इन फिल्मों के निर्माता एक लगाकर डेढ़ का मुनाफा कमाकर संतुष्ट हो जाते हैं।
डी  क्लास की फिल्में डार्क होती है क्योंकि इन फिल्मों में अंधेरा ही अंधेरा होता है। इन फिल्मों को  “आर्ट मूवी” कहते है । जरूरी नहीं है कि ये फिल्में थियेटरों में प्रदर्शित हो । लेकिन  भारत सरकार द्वारा दिया जाने वाला “नेशनल अवॉर्ड”  इन्हीं  फिल्मों को दिया जाता है।  डी क्लास के निर्देशक एवं कलाकार विशुद्ध बुद्धिजीवी होते हैं जो सरकारी संस्थानों से पैसा लेकर देश की किसी बुराई , व्यभिचार , गरीबी , जिल्लत को  विषय  केंद्र बनाकर फिल्में बनाते हैं। ऐसी फिल्मों का दर्शक वर्ग शून्य के बराबर होता है। डी क्लास की फिल्में बहुत कम लोगों के समझ में आती है क्योंकि ऐसा माना जाता है कि जिस फिल्म का ओर- छोर कुछ भी समझ में नहीं आए,  वही ” आर्ट – फिल्म”  है। अपवाद स्वरूप कुछ  ऐसी आर्ट फिल्में बनी है जो दर्शकों द्वारा सराही भी जाती है। डी क्लास की फिल्मों से रोजी-रोटी और घर खर्च संभालने में बढ़ी मुश्किलें आती है इसलिए आर्ट मूवी के निर्देशक और कलाकार ए क्लास , बी क्लास की फिल्मों में मौका पाते ही विशुद्ध बुद्धिजीवी का लबादा उतारकर फिल्मों द्वारा समाज सुधार करने की चौधराहट छोड़कर कमर्शियल एक्टर बन जाते हैं ।
अंधेरी के हवा महल होटल में विशाल, रशीद, अच्युतानंद और पंजाब का एक मालदार, सी क्लास की फिल्म निर्माण की योजना बना रहे हैं । फिल्म की कहानी,  बजट और कई तरह की योजना बनाकर तय किया गया कि फिल्म का नाम  “सबको दिखा दूंगी ”  रखा जाये।
” फिल्म का पोस्टर ऐसा होगा  कि, “– रशीद ने कहना शुरू किया , बैकग्राउंड में सागर है, समझो शाम को सूर्यास्त हो रहा है।
 एक न्यूड लड़की का केवल ब्लैक शैडो होगा जिसने एक हाथ में रिवाल्वर लिया हुआ है और दूसरे हाथ में ब्रा है । उसके नीचे टाईटल  लिखा होगा –  “सबको दिखा दूंगी।”
” अरे वाह ऽ ऽ ऽ क्या डिजाइन सोचा है !!!”  अच्युतानंद पंजाबी निर्माता का मुँह देखने लगे ।
” तो ठीक है । अगले महीने मेरा फाइनेंस आ रहा है तुम लोग कल से काम शुरू कर दो।”  बलजीत सिंह ने हरी झंडी दिखा दी ।
“ये हुई ना बात।”  विशाल का सीना दो इंच फुल आया,   “तो रशीद भाई …. कहानी लिखना शुरु कर दो। फाइनेंस आते ही आपुन शूटिंग शुरू कर देंगे।”
 रशीद ने ऊपर वाले का मन ही मन शुक्रिया अदा किया क्योंकि आज उसका सपना सच होने जा रहा था। इस फिल्म से उसे अच्छी झोल झाल होने की उम्मीद थी ।उसने आँखों के इशारे से विशाल और अच्युतानंद को आश्वस्त किया पार्टी पटाने के लिए उन दोनों का “हिस्सा ”   तय है ।
और इस तरह से बहुत जल्द एक चूतरछाप फिल्म देश भर के सिनेमाघरों में लगने वाली है जिसके पोस्टर में एक नंगी लड़की एक हाथ में रिवाल्वर और दूसरे हाथ में ब्रा लेकर ऐलान करती है “सबको दिखा दूंगी “
                                       * * *
अब्दुल मियाँ ने बिहारी के हाथ में एक चीट थमा दी कि इतने लोगों का फोन आप लोगों के लिए आया था। चीट में फिरोज सैफी , निरंजन पागल और रश्मि का नाम लिखा था। इस वक्त रात के ग्यारह बज रहे थे । फिरोज और रश्मि को फोन किया जा सकता है । निरंजन पागल का मैसेज शिखर के लिए था । रश्मि का नंबर डायल करने के बाद घंटी बजने की आवाज आने लगी।
” हैलो ।”  रश्मि ने फोन उठाया। बिहारी कुछ नहीं बोला।
“हैलो ” आवाज थोड़ी तल्ख हो गई।
” रश्मि …. कैसी हो?”
 ” ओऽऽबिहारी जी आप !!! आज मैंने दो बार फोन किया ।!!
“कहिये…. इस गरीब को क्यों याद किया ?”
बिहारी का अंदाज रश्मि को रूखा सा लगा। इसके पहले बिहारी ने कभी अपने आप को गरीब नहीं कहा था।
” ऐसा क्यों कहते हैं आप? …. नाराज हैं क्या मुझसे?”
 वास्तव में बिहारी को रश्मि से नाराजगी थी। उसे रश्मि से यह आशा नहीं थी कि वह चुपके से एक नैपकिन कंपनी के प्रोडक्ट की ऍड शुटिंग करें वह भी बिहारी को बिना कुछ बताए। इस शुटिंग की खबर उसे हरी  प्राश से मिली थी जो उस एड के निर्देशक थे।
” नहीं …..मैं क्यों नाराज होऊंगा रश्मि जी उसने कुछ जोर लगाकर कहा।
 बिहारीजी …..आप इतने डांट क्यों रहे हैं?  बताइए ना मुझसे क्या भूल हुई ।”
” रश्मि उस दिन सुबह सात बजे फोन किया तो तुम सो रही थी साढ़े आठ बजे  किया तो बाथरुम में थी ।मैंने मैसेज रखा कि दोबारा सवा नौ बजे फोन करूंगा …..और जब मैंने फोन किया तो मेरा मैसेज मिलने के बावजूद भी तुम निकल गई ।” बिहारी ने अंदर की कड़वाहट उड़ेल दी।
” ओऽ  ऽ  ऽ ….”,  रश्मि को अब बिहारी के नाराज़गी की वजह समझ में आयी।  “उस दिन मैं ऑलरेडी आधे घंटे लेट थी । मैं सवा नौ बजे तक इंतजार करती तो मैं बहुत लेट हो जाती । उस दिन मेरे रेडियो प्ले की रिकॉर्डिंग थी ।”  रश्मि ने अपनी सफाई पेश कर दी लेकिन बिहारी को पक्की खबर मिली थी उस दिन रश्मि और हैरी प्राश, दोनों दिन भर साथ थे। रश्मि के सफेद झूठ पर बिहारी मन ही मन खिझ उठा लेकिन उसने अपनी झल्लाहट को व्यक्त नहीं किया। रश्मि की चालाकी पर गहरी चोट करने के इरादे से उसने दूसरा तीर छोड़ा ।
” अच्छा रश्मि ….. एक बात बताओ । तुमने एक नैपकिन कंपनी के लिए चुपके से मॉडलिंग की और मुझे बताया भी नहीं ।”  बिहारी की आवाज विनम्र थी।
 “बिहारी जी,  यह बात आपको कैसे मालूम पड़ी? रश्मि की सिट्टी पीट्टी  गुम हो गई ।
“मैडम,  इस इंडस्ट्री में आये आपको जुम्मा – जुम्मा आठ दिन हो गए  और मैं यहाँ पिछले पंद्रह साल से झखमारी कर रहा हूँ।”   बिहारी की झल्लाहट सुनकर रश्मि समझ नहीं पाई कि इसका क्या जवाब दें ।
” रश्मि ……सफल होने के बाद लोगों को मैंने प्राउडी  होते  देखा है लेकिन तुम तो अभी से  प्राउडी हो गई।”
 “बिहारी जी,  आप मुझे बोलने तो दीजिए।  दरअसल यह मेरी पहली शुटिंग थी । मैं आपको सरप्राइज करना चाहती थी । जिस दिन टी.वी. पर मेरा एड  आता उस दिन मैं आपको अपने घर बुलाती। आपको खाना खिलाती और फिर …..।”  रश्मि कुछ आगे बोलती बिहारी ने जोर से डांट दिया ।
” मेरे को उल्लू समझती हो क्या?  मैंने तुम्हें हैरी प्राश से मिलवाया और उसी का ऍड करके तुम मुझे सरप्राइज़ करने वाली थी ।”
“आप मुझे गलत समझने की कोशिश…..।”
” अब समझने – समझाने का क्या रह गया,”  बिहारी गंभीर बन गया,   “तुमने हमेशा मेरी मदद की और मैंने तुम्हें एक अच्छा खासा ऍड दिलवाकर एहसान बराबर कर दिया….. गुडबाय।”  बिहारी ने फोन कट कर दिया।
 रश्मि का सिर घूमने लगा। वह बिहारी को अपना शुभचिंतक मानती है लेकिन पिछले दो वर्षों का संबंध एक झटके में टूट गया । वह चाहती थी कि नैपकीन ऍड की शुटिंग में बिहारी उसके साथ रहे लेकिन हैरी प्राश ने कहा था,  ” तुम्हारे साथ जो बिहारी आता है , उसका एटीट्यूड मुझे अच्छा नहीं लगता । शुटिंग के दिन वह मेरे सेट पर नहीं आना चाहिए।”
                                           * * *
 बिहारी ने बचपन में कई कहानियाँ पढ़ी और सुनी थी । वे कहानियाँ अब उसे याद नहीं थी,  लेकिन आज जब वह भारी मन उदास होकर चौपाटी सागर की  रेत पर बैठा है तो एक कहानी की स्मृति ताजा हो गई।  “एक राजा जिसका पूरा शरीर सुईयों से बिंधा  पड़ा हुआ है । उसकी रानी राजा के शरीर में चुभी अनगिनत सुईयों को  निकालती है ।उसकी उँगलियां खून से नहा चुकी है। तीक्ष्ण पीड़ा होने पर भी वह उफ्फ नहीं करती। अब केवल दो सुईयाँ आँखों  की पलकों पर चुभी है जिसे निकालते ही राजा उठ बैठेगा । रानी सोचती हैं कि जब राजा जागृत होंगे तो मैं उन्हें स्नान करवाउंगी  , उन्हें वस्त्राभूषण से सजाउंगी , दीप जलाकर आरती उतारूंगी और मिष्ठान्न से मुँह मिठा करवाउंगी  । राजा की सेवा में लगने वाली सभी साम्रग्रियों की जुगाड़ में वह निकल पड़ती है। रानी की अनुपस्थिति में एक वेश्या वहाँ आती है और आंखों की पलकों पर चुभी सुईयों को निकाल देती है। राजा उठ बैठता है और उस वेश्या को अपना तारणहार समझ कर अपनी धर्मपत्नी बना लेता है । राजा और वेश्या को  आलिंगनबद्ध   देखकर रानी की आँखों में आंसू आ जाते है।” रेत पर बैठे बिहारी की आँखें नम हो गई ।आज से चार साल पहले जब उसकी पहली मुलाकात हुई थी तो तब दो चोटी वाली रश्मि एक साधारण नयन नक्श वाली सीधी – साधी मराठी लड़की थी । बिहारी अपने फिल्मी कैरियर का असर रश्मि पर उड़ेलने लगा और धीरे-धीरे रश्मि ने हीरोइन बनने का पक्का इरादा बना लिया। बिहारी रश्मि को शारीरिक और मानसिक रूप से तैयार करने लगा। लखपति बाप की बेटी रश्मि का उसने फोटो सेशन करवाया । कॉलेज के फाइनल में पढ़ने वाली रश्मि को उसने मिस बंबई प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए इतना उत्साहित किया एक संकोची स्वभाव की शर्मीली रश्मि ने अपने नाम के अनुरूप अपने सौंदर्य की वो किरण बिखेरी के लोगों की आँखें चुंधिया गई और “मिस बंबई” का ताज रश्मि के माथे पर सुशोभित हो गया । रश्मि के चक्कर में बिहारी भूल गया कि वह पटना से बंबई क्यों आया है ?  पिछले पंद्रह वर्षों से वह बंबई में क्या बनने के लिए पापड़ बेल रहा है? वह बिल्कुल भूल गया कि उसे सागर सरहदी, गुरुदत्त, श्याम बेनेगल जैसे निर्देशक बनना है ।  रश्मि को देखता तो उसे लगता कि जिस दिन यह लड़की  स्टारडम में कदम रखेगी चारों तरफ इसी के नाम का जलवा होगा। ” रश्मि को टॉप की हीरोइन बनाना है ”   यह बिहारी का सपना था लेकिन उसके पास इतने पैसे नहीं थे कि रश्मि को लेकर कोई फिल्म शुरू करता।  रश्मि के लिये  बिहारी क्या कर सकता था ? बिहारी रश्मि को बॉलीवुड के बड़े निर्माता-निर्देशकों से मिलवा सकता था और उसने यही किया। इस स्ट्रगल के दौरान बिहारी रश्मि को कभी “कंप्रोमाइज ” नहीं करने दिया कि एकाध रोल के लिए वह किसी निर्माता – निर्देशक के बिस्तर पर अपने सारे कपड़े निकालकर नंगी पड़ी  रहे। बिहारी उसे समझाता कि तुम में वो बात है कि अपने आप को साबित करने के लिए तुम्हें किसी के साथ सोना पड़े। रश्मि को भी अपने आप पर पूरा विश्वास था इसलिए वह “कंप्रोमाइज” के मूड में बिल्कुल नहीं थी। आज बिहारी की हालत उसी रानी की तरह थी जिसने सारी सुईयाँ  निकाल दी  लेकिन राजा की रानी न बन सकी और वेश्या रानी बन गई। हैरी प्राश उसे एक ऍड में काम क्या दे दिया उसने बिहारी को भुला दिया।  आखिर  उन दोनों को मैंने ही तो मिलाया  था।  रश्मि की बेवफाई पर बिहारी अंदर ही अंदर सुलग रहा था क्योंकि मन के भीतर किसी कोने में उसे आशा थी कि रश्मि अब जब टॉप की हीरोइन बन जाएगी तो वह बिहारी का एहसान मानेगी और शायद ……। बिहारी एक लंबे इंतजार के लिए भी तैयार था।
 होटल हॉलिडे इन की चारदीवारी से सटे बैठे दो प्रेमी युगल अपने ऊपर दुपट्टा ओढ़े चुम्मा – चाटी करने में मशगूल थे। बिहारी ने महसूस किया कि इतने दिनों तक रश्मि के साथ रहा लेकिन कभी उसने उसे चुम्मा तक नहीं। एक दो बार उसने जाने-अनजाने में उसके वक्ष पर अपने केहुनी का दाब जरूर लगाया था लेकिन उसके आज की बेवफाई पर बिहारी  को अफसोस था कि उसने उसे निर्माता-निर्देशकों की  “कंप्रोमाइज” से बचाकर कोरा क्यों जाने दिया ? काश….. कभी वह रश्मि के जुल्फों से खेला होता ? उसके गुलाबी होठों को चुम्मा होता? उसके सुडौल वक्ष को सीने से दबाकर उसके शरीर के मध्य भाग पर अपने शरीर के मध्यभाग को “सेट” करके,  एड़ी में एडि़याँ फंसाकर अपने शरीर को हल्का करता। रश्मि के साथ अपने सहवास के विचार को चरम उत्कर्ष पर ले जाने के बाद बिहारी की गर्म सांसे ठंडी हो गई । उसकी जांघे ढीली हो गई  आँखों के सामने क्षण भर के लिये अंधेरा छा गया। मन लिजलिजा हो उठा। आत्मा में घृणा का ऐसा ज्वार उठा कि बिहारी को संभलना मुश्किल हो गया। वह इतना स्वार्थी  हो गया कि दूसरों के जीवन का निर्णय अपने हिसाब से लेगा। वह इतना कामपिपासु  पशु हो गया हो कि जो लड़की उसे अपना गॉडफादर नहीं समझेगी  , वह उसके साथ बलात्कार करेगा। अब उसे    “कंप्रोमाईज”  समझ में आ गया कि कोई निर्माता-निर्देशक किसी सुंदरी को अपनी फिल्म में रोल देने के बाद उसके साथ क्यों सोता है? बिहारी मन ही मन शर्मिंदा  हो गया। शिखर को आभास हो गया कि अब उसके नाम की लहर आने वाली है। पिछले  पाँच वर्षों से काम पाने के चक्कर में वह लोगों से मिलता रहा,  उनके ऑफिसों के चक्कर काटता रहा,  कई छोटे-मोटे रोल किये….. अब अशोक सागर के सीरियल “हिंद के बाशिंदे” में अली हसन की भूमिका द्वारा धीरे-धीरे उसकी पहचान बनने लगी । हिंद के बाशिंदे” का प्रसारण दूरदर्शन के चैनल एक पर पिछले तीन महीनों से शुरू है और टीआरपी के रेटिंग पर नंबर तीन पर है । शिखर ने अली हसन के चरित्र को आत्मसात कर लिया था।  सेट पर जब वह होता तो शिखर को भूल जाता और अपने आप को एक पक्का कट्टर  मुसलमान  का बच्चा समझता जिसके लिए उसका ईमान ही सब कुछ है और ईमान और इंसानियत के लिए अपनी जान कुर्बान कर सकता है । कई यार दोस्तों की बधाई के संदेश उसे अब्दुल मियाँ की टेलीफोन से प्राप्त होते। अखबारों के फिल्मी पन्ने पर कभी-कभार उसके अभिनय की तारीफ में दो चार छपे वाक्य पढ़ता तो सांसे फूलने लगती थी । रेल यात्रा के दौरान मिला निरंजन पागल अब उसका अभिन्न मित्र हो गया था। निरंजन पागल की कहानी डी.डी. राव को पसंद है इसलिए इस कोशिश में लगा है कि जल्द से जल्द वह फिल्म  शुरू हो जाए I शिखर और निरंजन पागल को आज दिन भर कोई विशेष काम नहीं है । शिखर ने निश्चय किया कि अब उसे एक पेजर खरीद लेना चाहिए क्योंकि अब्दुल मियाँ अगर एक भी महत्वपूर्ण मैसेज को “मिस” कर दिया तो हो सकता है कि कोई बड़ी सीरियल का दमदार रोल उसके हाथ से निकल जाए। शिखर और निरंजन पागल पेजर खरीदने बांद्रा लिंकिंग रोड की तरफ निकल पड़ते है।
                                                         * * *
छः बाई आठ  के कमरे में पत्रकार राज के सारे सामान यहाँ – वहाँ बिखरे पड़े थे।  राज को तीन बजे अंबोली के फिल्मालय स्टूडियो में पहुंचना है l  बेतरतीब ढंग से बिखरे बालों को संवारने के लिए राज कंघी ढूंढने के लिए उठा बैठी कर रहे हैं कि इतने में विशाल एक सजीले नवयुवक के साथ द्वार पर आ खड़ा हुआ।
” आओ विशाल आओ।” विशाल के साथ एक अपरिचित को देखकर राज ने दोनों को अंदर आने की इशारा किया । विशाल ने गर्मजोशी के साथ हाथ मिलाया और उस नवयुवक न हाथ जोड़कर नमस्ते किया ।
“क्या ढूंढ रहे हैं सर ? राज के चेहरे को देखकर विशाल ने अनुमान लगा लिया कि वह कुछ ढूंढ रहे हैं ।
“कमबख्त कंगी नहीं मिल रही है ?”
“तो कहाँ कंघी की मां मर गई है। विशाल ने अपने जेब से कंघी  निकालकर राज के आगे बढ़ा दी राज अपने लंबे काले केश को पीछे की तरफ धकेलते  हुए उस नवयुवक की तरफ आँखें मटकाई।
“सर ……यह मेरे दोस्त हैं …..संदीप सुर्वे विशाल ने कुछ रुक रुक कर अपने वाक्य पूरे किए  क्योंकि उसके कहने का अंदाज ऐसा था कि दोनों में वर्षो पुरानी दोस्ती हो जबकि वे दोनों इसके पहले केवल दो बार मिल चुके हैं ।
“सर। संदीप कोल्हापुर के रहने वाले हैं।” विशाल ने आगे बताना शुरू किया, पिछले चार महीने से बंबई में है। फिल्मों में काम करने के लिए स्ट्रगल कर रहे हैं ।”
“तो आपको भी फिल्मोनिया हो गया है ।” राज की व्यंग भरी मुस्कान देकर संदीप झेप गया ।
“अब इनकी प्रॉब्लम यह है कि अब तक यह किसी स्टूडियो में घुस नहीं पाए हैं । किसी भी डायरेक्टर से बात करना तो दूर की बात है ।”   इतना कह कर विशाल राज का मुँह ताकने लगा ।
राज समझ गया कि अब उसे क्या कहना है ,  “अरे भई,  इतना आसान थोड़े ही है कि आप खड़कपुर से बंबई आए और सुभाष घई को फोन किया कि लो मैं आ गया….., कहाँ के  रहने वाले हो ? “
अचानक पूछे गए प्रश्न से संदीप चकचा गया लेकिन पल भर में संभलकर जवाब दिया,  मइ  कोल्हापुर का चालीस किलो मीटर आगे भागोली तालुका का रहने वाला हूँ।”   संदीप की हिंदी में कोल्हापुरी मराठी बोलचाल का पुट था ।
“मुंबई में कौन रहता है आपका?”
” इदर मुंबई में मावशी रहती है मेरी।”
” कुछ पढ़ाई लिखाई किया है कि नहीं?”
” कॉलेज शिका है मइने ।”
“क्या करना चाहते हो तुम ये लाइन में?”
“मइ उदर  मराठी नाटक में बहुतेक काम किया है । मेरे को हऊश है कि हिंदी फिल्म में काम करने का ।”
“लेकिन तुम्हारी हिंदी तो सदाशिव अमरापुरकर हमसे भी ज्यादा टिपिकल है।”
” हिंदी मेरा सुधर जाएगा ।”
“तो क्या करें इनका ?” मुँह बिचकाकर राज ने विशाल की तरफ देखा।
” मैंने इनको सब समझा दिया है सर।”  विशाल ने संदीप को कुत्नी से  स्पर्श किया संदीप इशारा समझ गया और जेब से कुछ नोट के बंडल निकालकर राज के सामने बढ़ा दिए,   “सर मइ पिछला चार महिना से धक्का खा रहा हूँ।  मेरे को आप जैसा बोलेगा मइ वैसा करेगा ।”
” तुम और कुछ करो या न करो,  लेकिन हिंदी फिल्म में काम करना है तो मइ न बोलकर  “मैं” बोलो  “मैं” ।”
 संदीप के मइ , मइ सुनते -सुनते राज बोर  हो गया था। संदीप अपनी भाषा अशुद्धि उच्चारण के कारण शर्मिंदा हो गया । वातावरण में कड़वाहट को भांपकर विशाल ने इसे हल्का करने की कोशिश की , हर महीने हजारों “सर। ये हर महिने हजार रुपये देने को तैयार है I बदले में आपको  इसे ट्रेन्ड  करना है कि स्ट्रगल कैसे करते हैं , क किसी डायरेक्टर से काम कैसे मांगते हैं और आपके सर्कल में जो सीरियल या फिल्म बन रही है उसमें काम दिलाना है । फिफ्टी परसेंट अमाउंट भी देने को राजी है।”
” वो तो सब ठीक है,  लेकिन इसमें टाईम लगेगा!”
“चलेगा सर…..म् म् म् मई ….मेरे को,”  संदीप  ने मई को मैं कहने की कोशिश की ,  मैं आपका मदद चाहता हूँ।”
 संदीप के हाथ से नोट लेकर राज ने पूछा,   “घर से पैसा मंगाते हो?”
” मेरा चिल्लर पैसे का धंधा है। मैं सो रूपये लेता हूँ और सत्तानवे रूपये का चाराना , आठना,  एक रुपए का चिल्लर दुकान , होटल ,और पान वाले को देता हूँ ।”
अरे वाह….. चिल्लर का धंधा ….. वह भी तीन परसेंट कमीशन पर ……तुसी तोप हो तोप।”  राज अभी बखान ही रहे थे कि  संदीप ने अपने दूसरे धंधे के बारे में भी बता दिया , सर । मैं सुबह – सुबह चार बजे उठकर बीस रिक्शा भी धोता हूँ।”
” तो तू नाम करेगा …..वेरी गुड ……अच्छा,  फिल्मालय स्टूडियो मालूम है ?”
” वो जोगेश्वरी वाला न?”
“हाँ। जोगेश्वरी के अंबोली एरिया में है लेकिन अंधेरी से नजदीक है। आज वहाँ तीन बजे मुझे गेट पर मिलना।” संदीप समझ गया कि अब उसे चलना चाहिए । उसने विशाल की तरफ देखा।
” ठीक है संदीप । अभी बारह बज रहे हैं। तीन  बजे वहाँ आ जाना।”  विशाल ने प्यार जताते हुए कहा।
” आप नहीं ….।  संदीप का प्रश्न अधूरा रहा।
” नहीं ,नहीं….. अभी मुझे थोड़ा काम है । तीन बजे मैं भी आता हूँ।”    विशाल ने अभी साथ में न आ पाने की असमर्थता जताई । बड़ी गर्मजोशी से हाथ मिलाकर  संदीप चला गया ।
“ना जाने कैसे-कैसे लोग बंबई में चले आते हैं हीरों बनने।”  राज ने नोटों को गिनना शुरू किया ।
“जब अमिताभ बच्चन हिट हुए तो उत्तर प्रदेश से लोगों का आना शुरू हो गया। शाहरुख खान हिट हुआ तो दिल्ली का हर बंदा शाहरूख बनने के लिए बंबई की तरफ दौड़ लगाता है। मेरे को लगता है कि नाना पाटेकर के हिट होने के बाद ये संदीप सुर्वे कोल्हापुर से सीधे मुंबई पहुँच गया।”  विशाल को हंसी छूट गई।
“अबे तू किसके हिट होने के बाद मुंबई आया ?” सौ-सौ के दो नोट निकालकर राज ने विशाल के हाथ में रख दिए।
“सौ रूपये और दे दीजिए I”
राज ने सौ रूपये और दे दिए ।
दस  मिनट बाद विशाल अकेले ही खार – दंडा के सड़क पर खड़ा सोच रहा है कि जाएं तो जाएं कहाँ??
होटल चट्टान के पीछे की झोपड़पट्टी में रहने वाली सांवली सलोनी कुसुम का चेहरा उसकी आँखों में तैर गया। पहली मुलाकात के समय कुसुम ने गुलाबी रंग की साड़ी पहनी थी और बालों में गजरा लगाया था।  विशाल के मन में आया कि क्यों न आज दूसरी मुलाकात भी कर ली जाए?
                                           * * *
भारतीय सभ्यता  एवं प्राचीन संस्कार के अनुसार स्त्री और पुरुष में शारीरिक संबंध के लिये कई मार्यादाएँ निश्चित की गई है। संभोग से परम आनंद एवं संतान की प्राप्ति होती है परंतु शर्त यह है कि विवाह के पश्चात ही यह उत्सव होना चाहिए। समाज  कितना ही आधुनिक हो गया है लेकिन विवाह के पहले सेक्स की इजाजत नहीं है। सामाजिक अपराध को रोकने के लिए कानून ने भी कई कड़े नियम बनाए हैं। जब कोई पुरूष स्त्री के इच्छा के विरुद्ध उसके साथ संभोग करता है तो यह अपराध है। कच्ची उम्र के लड़के – लड़की विवाह के पहले हमबिस्तर होते हैं तो यह पाप है । इस अपराध और पाप के अतिरिक्त एक मार्डन तरीका आजकल प्रचलन में है। स्त्री की इच्छा नहीं है फिर भी वह उस पुरुष के साथ शारीरिक संबंध के आमंत्रण को स्वीकार कर लेती है जो उसके साथ कोई जोर जबरदस्ती नहीं करता।  लड़की महतत्वकांक्षी है और लड़का इस लायक है कि वह उसे सफलता की सीढ़ी पर चढ़ा सकता है तो किसी भी क्षेत्र में दो बदन के मध्य इस तरह के संबंध पनपने लगते हैं जो “गीव एंड टेक” के फार्मूले पर आधारित होता है । “फक एंड फॉरगेट” जैसा आदर्श वाक्य फिल्म इंडस्ट्री में बहुत पहले से प्रचलन में है ।
 रश्मि के पास मदहोश कर देने वाला सेक्सी फिगर है तो हैरी प्राश के पास है विज्ञापन निर्देशन का सफलतम कौशल l रश्मि का सपना है कि वह टॉप की हीरोइन बनें और हैरी प्राश उसे अपने दो विज्ञापन के लिए मॉडल साइन कर चुका है । चालीस हजार का चेक देते हुए बिना किसी शर्म-संकोच के रश्मि की आँखों में झांकते हुए कहा था,   “अब तो मॉडल बन जाओगी, कल को हीरोइन भी बन जाओगी….. और मेहनताना के तुम्हें चालीस हजार भी मिल गये….. लेकिन मुझे क्या मिला ? मैंने तुम्हें टी.वी . पर आने का चांस दिया तो तुम मुझे क्या दोगी?
 इतनी बड़ी रकम का चेक थामते हुये रश्मि का कलेजा धुकधुकाने लगा । दो मिनट विज्ञापन के चालीस हजार तो एक फिल्म की मेन हीरोइन बनूंगी तो कितना मिलेगा ? लाख…… दस लाख…… एक फिल्म हिट हुई तो दूसरी फिल्म साइन करूंगी ….. अपना घर खरीदूंगी ….. टाटा सफारी गाड़ी में अपने मम्मी-डैडी को लेकर घुमूंगी….. अखबारों में फोटो  छ्पेंगे….. सभी चैनलों पर मेरे इंटरव्यू टेलीकास्ट होंगे ….. जिस स्कूल कॉलेज में मैं पढ़ी उसके चहारदिवारी पर मेरे रंगीन पोस्टर चिपकाये जायेंगे…… मिस इंडिया तो नहीं बनी लेकिन हो सकता है मुझे फिल्मफेयर फेमिना का ” बेस्ट एक्ट्रेस अवार्ड” मिले… .. इतना सब कुछ…. मैं तो पागल हो जाउंगी …..
भविष्य के रंगीले सपनों की दुनिया में रश्मि इस तरह को खो गई कि वर्तमान में उसके साथ क्या हो रहा है , उसे पता ही नहीं चला । उसे हल्का सा आभास हुआ कि हैरी प्राश ने उसके जांघ पर अपना सिर रख दिया है।रश्मि पशोपेश में थी  अब क्या करना चाहिए?  वह कोई निर्णय नहीं ले पाई कि हैरी प्राश ने उसके होठों को मुँह में ले लिया । इस समय उसके कानों में बिहारी के कहे वाक्य गूंजने लगे कि रश्मि …..इस लाइन में देखने-दिखाने के लिए हर आदमी शरीफ नजर आता है लेकिन मौका पाते ही वह जानवर की तरह नंगा हो जाता है। रश्मि ने पाया कि हैरी प्राश  ने उसके टॉप की झीप एक ही झटके में खोल कर उसके बदन से अलग कर दी I रश्मि के मन में आया कि वह इस जानवर के चंगुल से मुक्त हो जाए क्योंकि किसी पुरुष के इतने नजदीकी का उसका पहला अनुभव था। हैरी प्राश अचानक आक्रामक हो गया और उसने रश्मि को जबरन जमीन पर लिटा दिया । रश्मि का दिमाग सुन्न हो गया ।  उसकी आँखों के आगे अंधेरा छा गया । उसने सोचा कि जोर से चीखू  लेकिन उसके हलक से आवाज ही नहीं निकल रही थी। टटोल कर देखा तो अपने को और हैरी प्राश को निर्वस्त्र पाया।
 आनेवाले दिनों की टॉप हीरोइन आज जोरदार स्ट्रगल कर रही है।
                          ***
 बहुत दिनों के बाद आज रविवार को चारों स्टूगलर एक साथ मिलकर खाना खा रहे हैं ।स्वामी रोज सुबह आठ बजे घर से निकलता है तो रात को ग्यारह के बाद टुन्न होकर आता |यदि शुटिंग न हुई तो उसे गोडाउन में जाकर ट्रैक, ट्रॉली, लाइट इक्किपमेंट की साफ सफाई करनी पड़ती। शिखर और बिहारी भी अपनी शुटिंग शिफ्ट के हिसाब से घर छोड़ते और शुटिंग न हुई तो दोपहर बारह बजे से रात के बारह एक तक बाहर भटकते रहते ।  विशाल इन सब से अलग था। कभी-कभार वह कई रातों घर से गायब रहता तो कभी-कभी दो-दो,  तीन-तीन दिन वह बीयर पीकर कब्र भर की जगह घेरे पड़ा रहता । विशाल लक्ष्यहीन जीव था ।उसके दिमाग में ऐसा कोई फितूर नहीं था कि वह क्या बनना चाहता है ?वह क्या करना चाहता है ? विशाल को कई लोग भटकती आत्मा भी कहकर चिढ़ाते हैं क्योंकि वह किसी न किसी शुटिंग में,  एडिटिंग या डबिंग थिएटर में अक्सर दिखाई दे जाता था। विशाल दिखने में स्मार्ट और कुशल व्यक्तित्व का धनी था लेकिन अंदर ही अंदर वह कुढ़ता रहता था। उसके हृदय में एक ऐसा शूल बिंधा था जिसकी वेदना से वह मन ही मन तड़पता था।  कोई दस साल पहले वह किसी के बहकावे में आकर घर से पाँच लाख नगद लेकर इसी बंबई में हीरो बनने आया था। कई फिल्मी दोस्तों की सलाह पर उसने एक फिल्म बनाने की घोषणा कर दी। फिल्म का नाम था, अक्कड़ बक्कड़ बंबे बो।  फिल्म के निर्देशन के लिए उसने उस समय के एक बी ग्रेड के निर्देशक को साइन किया ।उसके अपने पाँच लाख उड़ गए । फाइनेंसरों और शुभचिंतकों के  वादानुसार और फाइनेंस का जुगाड़ हो नहीं पाया। फिल्म तीन रील से आगे बढ़ न सकी और विशाल हीरो बनते – बनते रह गया ।  बिजनौर के करोड़पति बाप का बेटा विशाल बंबई में कंगाल फटे हालात में जीवन जीने को मजबूर था क्योंकि उसने अपने पिता की तिजोरी से चार लाख चुराये और अपनी बहन के ससूर जी को पट्टी पढ़ाकर एक लाख रूपये मांग कर लाया था। समय की ऐसी महिमा कि इस हादसे के बाद न वह कभी बिजनौर गया और न ही कोई वहाँ से यहाँ बंबई की भीड़ में उसे खोजने आया।
 बिहारी ने सभी को सूचित किया कि एक सप्ताह के भीतर हम सबको रेलवे कॉलोनी का यह सर्वेन्ट रूम छोड़ना पड़ेगा क्योंकि फिरोज सैफी के फुफाजान दो महीने पहले लाइनमैन की नौकरी से सेवानिवृत्त हो गए । फिरोज सैफी जब हीरो बनने बंबई आया था तो उसके फुफा ने इसी क्वार्टर में शरण दी थी। उन्हीं दिनों स्ट्रगल के दौरान फिरोज शैफी और बिहारी की एक दूसरे से मुलाकात हुई थी I दोनों के बीच दोस्ती बढ़ती गई क्योंकि बिहारी पटना का रहने वाला था और फिरोज छपरा जिले का। सात साल के संघर्ष के बाद फिरोज अपना मकाम पाने में कामयाब हो गया क्योंकि उसे कई फिल्मों में चरित्र अभिनेता का छोटे-मोटे रोल मिलने लगे। एक समय ऐसा भी आया कि अपने स्टैंडर्ड के मुताबिक उसने मीरा रोड में टू रूम किचेन का फ्लैट ले लिया।  उसके फुफाजान का भायखला में निजी मकान था इसलिए फिरोज ने बांद्रा रेलवे कॉलोनी का सर्वेन्ट रूम बिहारी को दे दिया । बिहारी को हजार रूपये किराए का उसके फुफा को चुकाना पड़ता था इसलिए उसने धीरे-धीरे अपना कुनबा बसा लिया । स्वामी, विशाल ,शेखर और वह…. चारों पिछले चार साल से एक ही छत के नीचे रहकर फिल्म इंडस्ट्री में अपने अपने हिस्से की छत के लिए स्ट्रगल कर रहे थे….. और आज फिरोज सैफी का अल्टीमेटम आ गया कि एक सप्ताह के अंदर रूम खाली करो ।
“करना ही पड़ेगा भाई I” शिखर के चेहरे पर चिकनाहट और आवाज में भारीपन आ गया था जब से वह “तुम सब एक हो ”  और “हिंद के बाशिंदे”  में एक्टिंग करने लगा था।
” मैं तो सोचता हूँ कि यहाँ से छोड़कर होटल चट्टान के पीछे वाली झोपड़पट्टी में कोई कमरा भाड़े पर ले ले”  विशाल का शरीर भले सर्वेंट रूम में था लेकिन उसका मन गुलाबी साड़ी में लिपटी बालों में मोगरे का गजरा सजाए सांवली सलोनी कुसुम के होंठ, आँख, सीना और नितंब की फोटोग्राफी में मगन है ।
“अरे छोड़ो यार !! यह भी कोई बात हुई कि सर्वेंट रूम में निकले तो झोपड़पट्टी में जाए? शिखर ने मुँह बिचकाया।
” देखो बाबा,”   स्वामी ने मुँह खोला मैं अपना फैमिली  लाने वाला है इसलिए मैं साकीनाका में एक रूम दस हजार का डिपोजिट भाड़ा में ले रहा हूँ।”
“ठीक है, तो हम लोग भी आकर वहाँ रहते हैं ।”  बिहारी ने अपना प्रस्ताव रखा।
 स्वामी अपनी बत्तिसी दिखाकर खीं खीं  करने लगा।
” स्वामी अपनी बीवी को लेकर सोएगा। हम लोग कवाब में हड्डी क्यों बनें ?”
बिहारी नये ठौर ठिकाने को लेकर गंभीर था।
”  इसमें इतनी चिंता की क्या बात है?” आज से हम रूम के लिए स्ट्रगल शुरू करते हैं….. और क्या? शिखर की बातों में दम था।
” बिहारीजी, आप फिरोज भाई से डिपॉजिट के पंद्रह हजार रूपये मांग लो , कहीं ना कहीं व्यवस्था हो जाएगी।”   विशाल की हाँ में हाँ मिलाकर बिहारी ने शिखर से पूछा,  “शाम को फ्री हो क्या ? फिरोज भाई के पास चलना है।”
“आज शाम को डी. डी. राव ने मुझे और निरंजन पागल को सिटिंग के लिए बुलाया है। आज स्टोरी पर डिस्कशन होना है।” शिखर ने बिहारी से कहा।
शिखर निरंजन पागल का इंतजार कर रहा था कि तीन बजने को आये है और वह अभी तक आया नहीं। शाम पाँच बजे  डी. डी. राव के बंगले पर पहुँचना है।
                                             ***
निरंजन पागल की सुनाई कहानी डी. डी. राव को बहुत पसंद आयी। जब वह कहानी सुना रहा था तब राव साहब की आँखों के सामने फिल्म के काल्पनिक दृथ्य रील की तरह दौड़ रहे थे। कहानी एक नये  विषय को लेकर लिखी गई थी और आज के फिल्मों की कहानी से कुछ हटकर अपना एक अलग टेस्ट रखती थी । डी.डी .राव का मन  उनसे बार-बार यही कहता था कि इस फिल्म को बनाने में कोई घाटे का सौदा नहीं था ।अपने परिवार के सदस्य एवं कुछ विश्वसनीय मित्रों को जब उन्होंने कहानी की थीम सुनाई तो सभी ने उन्हें इस फिल्म को बनाने की सलाह दी।
 डी. डी .राव के पाली हिल वाले बंगले पर इस फिल्म के सिलसिले में पहली सिटिंग हो रही थी।  सबसे पहले पहुँचनेवालों में शिखर और निरंजन पागल थे। बंगले के नेपाली नौकर ने दोनों को ठंडा पानी पिलाया । डेढ़ घंटे के बाद डी. डी .राव एक छब्बीस वर्षीय युवक के साथ आए। वह नवयुवक डी.डी .राव का इकलौता पुत्र सुमंत राव था जो उनकी फिल्मों के वितरण व्यापार को संभालता था। सुमंत राव के साथ शिखर एवं निरंजन पागल के बीच परिचय होने के बाद यहाँ – वहाँ की बातें हो रही थी कि  दो और व्यक्तियों ने उस हाल में प्रवेश किया। एक व्यक्ति की उम्र पचपन साल के करीब थी । सिर पर थोड़े बहुत बचे – खुचे बाल खोपड़ी से चिपके हुए थे । शरीर थुलथुल और पेट  कुछ  ज्यादा ही बाहर निकला था। आँखों की हल्की लालिमा और नीचे गड्ढों की कालिमा से कोई भी आसानी से भाप सकता है कि ये साहब नंबर  के पियक्कड़  है। उनके साथ आया व्यक्ति करीब चालीस वर्ष के आसपास का स्मार्ट युवक है। कमजोर बदन के इस व्यक्ति की मुस्कान में गज़ब का आकर्षण था।  डी.डी. राव ने उन दोनों को अपने पास बिठाया और शिखर,  निरंजन पागल का परिचय कराने के बाद उन दोनों का परिचय दिया। कमजोर बदन के व्यक्ति का नाम निलोत्पल मुखर्जी था जिसने डी.डी. राव की पिछली चार फिल्मों की पटकथा लिखी थी । दूसरे व्यक्ति का नाम करीम मुस्तफा था जिन्होंने पिछले पच्चीस वर्षों में सौ से अधिक फिल्मों के संवाद लिखे थे।
 नेपाली नौकर ट्रे में  मिठाई,  बिस्किट और चाय की केतली सजाकर ले आया I मुस्तफा ने एक बर्फी का टुकड़ा मुँह में भरकर बोलना शुरू किया ,  “राव साहब ,कहानी इसी लड़के ने सुनाई थी आपको?”  उन्होंने शिखर की तरफ उंगली उठाई । शिखर ने अपनी उंगली निरंजन पागल की ओर दर्शा दी l
” भई, तुम्हारी कहानी तो मेरी समझ में आ गई लेकिन तुम्हारा नाम…..क्या कहते हैं निरंजन पागल ,  इसका कोई मतलब समझ में नहीं आया I”
“बस ऐसे ही …..शौक था कि इस इंडस्ट्री के लिए कोई पेटनेम  रखूं  तो मुझे  निरंजन पागल अच्छा लगा सो रख लिया ।” निरंजन पागल कोई सार्थक जवाब नहीं दे सका।
” कहाँ के रहने वाले हो ?” निलोत्पल ने पूछा।
” मैं जबलपुर का रहने वाला हूँ । यहाँ थाने के म्युनिसिपल स्कूल में टीचर हूँ।”. निरंजन पागल ने अपने आप को टीचर बताना जरूरी समझा क्योंकि कहीं वे दोनों यह न समझ  ले कि वह स्ट्रगलर है । इस्टैबलिश्ड लोगों के नजरिए से वह  अच्छी तरह वाकिफ था ।
“देखो भाई,  मैं जो नई फिल्म बनाने जा रहा हूँ  उसके बारे में मैं थोड़ी बहुत जानकारी देना चाहता हूँ”   डी. डी. राव काम की बात करने लगे।  “कहानी तो  निरंजन पागल ने लिखी है । इसका स्क्रीन प्ले निलोत्पल करेंगे और निरंजन पागल उनकी मदद करते रहेंगे। फिल्म के डायलॉग करीम मुस्तफा साहब लिखेंगे क्योंकि इस फिल्म का हीरो छक्का है और करीम साहब को छक्कों का अच्छा खासा एक्सपीरियंस है।”  वातावरण में जोर की हंसी गूंजी।मुस्तफा होंठ चबा कर मुस्कुरा दिए I
“अच्छा, एक बात मैं आप लोगों को और बताऊं”  इतना कह कर भी कुछ क्षण के लिए चुप हो गए। सभी उनके मुँह की  ओर ताकने लगे।
” इस फिल्म को मैं प्रोड्युश  करूंगा और इस फिल्म को डायरेक्ट करेगा…. मेरा…. लड़का ….. सुमंत राव।”
सुमंत राव का नाम सुनते ही सबने ऐसी मुद्रा बनाई कि वे  सब समझ नहीं पा रहे थे कि हंसे या रोये। दस सेकेन्ड के बाद करीम मुस्तफा ने अपने बगल में बैठे सुमंत राव को खींचकर अपनी छाती से लगा लिया और जोर-जोर से उसकी पीठ थपथपाने लगे। सुमंत राव उनके बाहुपाश से मुक्त  हुआ तो नीलोत्पल, शिखर , और निरंजन पागल ने बड़े उत्साह के साथ हाथ मिलाकर बधाई दी । नई नवेली दुल्हन की तरह शरमाकर सुमंत राव सबका अभिवादन स्वीकार करता रहा । प्लेट से बर्फी का एक टुकड़ा उठाकर नीलोत्पल ने सुमंत राव के मुँह में ठूस दिया। सबको बराबर का सम्मान देने के लिये सुमंत ने एक-एक बर्फी का टुकड़ा उठाकर करीम मुस्तफा ,नीलोत्पल , शिखर और निरंजन पागल के मुँह में डाल दिया।  पानी का जग लेकर नेपाली नौकर आया तो सुमंत ने बर्फी का एक टुकड़ा उसके मुँह में भी डाल दिया। मालिक की इस हरकत से नौकर  झेप गया। सबको खुश देखकर वह भी बनावटी खुशी दिखाने के लिए अपनी बत्तिसी  दिखाने लगा।  माहौल थोड़ा हल्का हुआ तो डी.डी. राव ने कुछ बोलने के लिए मुँह खोला लेकिन कुछ सोचकर मंद – मंद मुस्कुरा पडे़। सभी के चेहरे पर मुस्कुराहट तैर गई।
“मेरी फिल्म का मेन हीरो छक्का है जो अन्याय और अत्याचार के खिलाफ लड़ता है इसलिए मैंने अपनी फिल्म का नाम रखा है…..”
कोई कुछ बोलने के लिए मुँह खोलता कि डी.डी. राव ने अपने फिल्म का नामकरण कर दिया।
” मेरी फिल्म का नाम है – छक्का नंबर वन।”
  गुड, गुड, वेरी गुड, वेरी गुड, क्या बात है , डी. डी.  राव साहब का जवाब नहीं,  छक्का नंबर वन,  फिल्म समझो सुपरहिट,  नाम ऐसा कि जो सुनेगा तो फिल्म देखे बिना नहीं रहेगा,  अरे कोई देखे या ना देखे पूरे देश के छक्के इस फिल्म को जरूर देखेंगे, फिल्म की कहानी नयी है,   फिल्म का प्रेजेंटेशन हट के होना चाहिए , ऑल दी बेस्ट डी .डी. राव ऑल दी बेस्ट सुमंत राव।
जिसके मन में जो कुछ भी आ रहा था, वह बके जा रहा था । डी. डी. राव और सुमंत राव  अपनी वाहवाही सुनकर  फुले नहीं समा रहे थे । वे चारों  खुश थे कि चलो एक नई फिल्म बन रही है ….. काम और पैसे का कुछ महीनों के लिए जुगाड़ तो हुआ ।  डी. डी. राव ने बुरी  तरह से स्ट्रगल करके अपना मकाम बनाया था । बाप की लगाई फसल को बेटा काट रहा था। सुमंत राव बिना स्ट्रगल किये ही  घर बैठे – बैठे डायरेक्टर बन गया। शिखर को याद आया कि बिहारी असिस्ट करते – करते  बोर हो चुका है,  लेकिन कोई जुगाड़ नहीं बैठ रहा है ।
इस तरह से एक नई फिल्म “छक्का नंबर वन” की पहली  सिटिंग में निर्माता,निर्देशक, लेखक, संवाद लेखक सभी  मिलकर कहानी को आगे बढ़ाने में जुट गये।
दिल्ली के राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से प्रशिक्षण लेकर बंबई आने वाले स्टूडियों में घुसने के लिए दरवानों से मिन्नते नहीं करनी पड़ती । निर्माता, निर्देशकों को फोन करके अपने आप को इंट्रोङ्युस  करने की जहमत नहीं उठानी पड़ती । दिल्ली से बंबई रवाना होने से पहले उनकी टेलीफोन डायरेक्टरी में कुछ ऐसे लोगों के टेलीफोन नंबर होते हैं जो राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के मंच से अपनी यात्रा शुरू कर के बंबईया स्टारडम में अपनी किस्मत के साथ दो-दो हाथ करने में मशगूल रहते हैं । पुणे फिल्म संस्थान में  अभिनय , निर्देशन,  लेखन या अन्य तकनीकी प्रशिक्षण लेने वाले विद्यार्थियों को वर्ष में एक -दो  बार विशेष अवसरों पर बंबई , कोलकाता और चेन्नई के नामी गिरामी फिल्मकारों से उनके सम्मेलनों में मिलने का मौका मिलता है । ऐसे स्नेह सम्मेलनों में प्रशिक्षणार्थी बंबई जादूई नगरी में घुसने का रास्ता ढूंढने लगते हैं।
 राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, पुणे फिल्म संस्थान ,श्री राम सेंटर से जो लोग बंबई में हीरो बनने आते हैं उनके पास अभिनय का अनुभव होता है जो पिछले कई वर्षों से थिएटर कर रहे हैं। अमुक अमुक प्रतिष्ठित निर्देशक के साथ फलां फलां रंगमंच पर कितने शो किये ?  कौन से नाटक में किस भूमिका के लिए गोल्ड मेडल का अवॉर्ड मिला?
 लेकिन वे लोग, जिनका दूर-दूर तक राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय , पुणे फिल्म संस्थान से कोई नाता नहीं होता, वे लोग जिन्होंने सपने में भी कभी रंगमंच न देखा हो , वे लोग जिनकी फिल्मी दुनियां के किसी भी व्यक्ति से कोई जान – पहचान नहीं होती ……और बिना कुछ सोचे समझे….. अति उल्लास उत्साह में पूरे आत्मविश्वास के साथ….. हीरो नंबर-१  बनने का सपना लेकर…. सुलेमानी कीड़ा के देश से होकर बंबई की ओर जानेवाली किसी भी गाड़ी में अपने आप को बुक कर देते हैं। ….. आसान नहीं डगर पनघट की ।
 सपनों की नगरी ….. बंबई । बंबई…. एक ऐसा शहर जो सबको पनाह देती है । आगे बढ़ने के लिए सबको समान रूप से अवसर प्रदान करती है । अब यह तो किस्मत की बात है कि वक्त और जिंदगी की रफ्तार में कौन किससे आगे निकल जाता है और कौन कहाँ पीछे छूट जाता है।
 इसी महानगरी की जादु कोठरी….. फिल्मसिटी, फिल्मालय, नटराज, एस्सेल स्टूडियों, आर. के. स्टूडियों गाँव खड़कपुर हो या शहर पटना …. बस मूड में आ गया कि हम भी बनेंगे अमिताभ बच्चन ….. शाहरुख खान ….. कुछ नहीं तो ….. ओमपुरी या असरानी बन ही जाएंगे …. दौड़ पड़े आँख  मूदकर बंबई की ओर…. सड़क पर चलते – चलते, स्टूडियों में घुसने की जुगाड़ में बार-बार दुत्कार खाते-खाते,  पच्चीस फोन करने के बाद एक बार किसी निर्माता निर्देशक के साथ है बतियाकर ……अपने वजूद को सपनों की भट्टी में झोंक देता है। अपने कल के लिए आज को भुला देता है । थोड़ा बहुत हटकर पाने की चाहत में अपना बहुत कुछ खो देता…. स्ट्रगलर….. स्ट्रगल करनेवाला…. फिल्मों में कुछ कर दिखाने की जद्दोजहद में  अपने आप को गला देने वाला स्ट्रगलर ……शहर जलालाबाद से फिल्मों में गीत , गज़ल लिखने के लिए बंबई आए जनाब उमर शेख फारूख साहब ने इतने पापड़ बेले,  इतना स्ट्रगल किया,  जवानी के कई वर्षो को सड़कों पर सैंडल घिसते-घिसते गवां दिए ,इतने जलील किए गए और जलालत की जिंदगी जीते जीते सात वर्ष बाद जब उन्हें एक  बी ग्रेड की फिल्म में पाँच गीत लिखने का मौका मिला तो तकदीर बदलने के पहले उन्होंने अपना नाम बदल लिया । जनाब उमर शेख फारूक साहब से गीतकार जलील जलालावादी  हो गए । अपने स्ट्रगल के दिनों में अक्सर अपने दोस्तों को अपनी कविता से उनका हौसला बढ़ाते थे कि…. अर्ज किया है ……
  “जीवन लक्ष्य कि फिल्मी एक्टर
शुरू हुआ जमीं से आसमां का सफर दाँव लगाया सपनों को खा रहे ठोकर नाम अपना करके रहेंगे कहता है स्ट्रगलर I”
सभी स्ट्रगलर  दोस्त वाह – वाह  करते करते उनकी गाल चूम लेते थे। हर शह वक्त की गुलाम होती है । वक्त सबसे बड़ा बादशाह है। वक्त के हाथों में लोगों की तकदीर है….. लेकिन तकदीर के सहारे बैठकर वक्त काटने वाले लोगों की जमात नामर्दों जमात होती है । मर्द तो वह है जो सीना तान कर ताल ठोककर सामने आनेवाली एक – एक चुनौती से बराबर की टक्कर ले। मेहनत का फल कभी बेकार नहीं जाता । सात वर्षों की कठिन परिश्रम के बाद पहली बार उन्हें एक बी ग्रेड की फिल्म में गाना लिखने का मौका मिला…..और ऐसे ही चार – पाँच फिल्मों में गीत लिखने के बाद इंडस्ट्रि के टॉप के प्रोड्यूसर डायरेक्टर डी . डी .राव की फिल्म जो उनका बेटा सुमंत डायरेक्ट कर रहा है ……महत्वाकांक्षी फिल्म छक्का नं. १  के सभी गीत लिखने के लिए जनाब जलील जलालाबाद  को साइन किया गया । ए ग्रेड की फिल्म , ए ग्रेड के प्रोड्यूसर, डायरेक्टर और उनके बैनर के साथ जुड़कर बीग बी ग्रेड का गीतकार अब ए ग्रेड की कैटेगरी में आ गया ।
 “खामोशियां भी कितनी उदास होतीहै,
अश्क जो बहे दर्द की सौगात होती है।”
                                        ***

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